दसवां अध्याय हुई थी, उस समय कितने ही वक्ताओं ने महात्माजी के नवीन तत्त्व-ज्ञान पर भाषण किया। मैंने भी उस सभा में उपस्थित होकर कहा था-हिंसा की इच्छा से कोई भी युद्ध में सफल नहीं हो सकता। युद्ध में सम्मिलित होकर लड़ाई में विजय प्राप्त करने- वालों में बलिदान की पवित्र मनोकांक्षा होनी चाहिए । भार- तीयों में मारने की शक्ति नहीं, किंतु मरने की इच्छा है । बत्तीस करोड़ आदमियों को मारना खेल नहीं । मशीनों की उप-. योगिता के लिये धन की आवश्यकता है। इतना धन भी ब्रिटिश के पास न होगा, जिससे सब भारतीयों को मार डाला जाय । कुछ समय के लिये मान भी लिया जाय कि आपके पास सब कुछ है, तो बत्तीस करोड़ आदमियों को मारने का नैतिक बल नहीं हो सकता । भारत के लिये हममें मरने की भावना है, जो दिन- दिन बढ़ती ही जा रही है। ऐसी परिस्थिति में जब भारतीयों में बलिदान की सच्ची भावना उत्पन्न होगी, तब अंगरेजों में वह साहस ही न रह जायगा कि वे निरस्त्र भारतीयों को निरंतर- गोली से मारते चले जाएँ। "हिंदू-मुस्लिम भी एक समस्या है। श्राज हममें मतभेद है, इसीलिये श्राप हम पर राज्य कर रहे हैं। यदि हम अपने मतभेद को भूल जाय, तो आपको राज्य करना मुश्किल हो जायगा। यहाँ हम अपने मतभेद को भूल जाने की ही प्रतिज्ञा करके आए हैं। भारत पर होनेवाली ब्रिटेन की प्रधानता अवश्य नष्ट होगी। बहुतेरे लोग मुझसे पूछते हैं कि राजनीति से और ।
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