पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/८७

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( म विदूषक प्रकार अकड़ कर चल रहा था जैसे युद्ध क्षेत्र में काला पहाड़ी कौवा अकढ़ कर चलता है । और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह अपनी नम्रता से रास्ते में श्राने जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को लजित कर पह दिखाना चाहता है कि उसे उनकी कोई चिन्ता नहीं हो सकता है कि उसके विषय में इस बात को या किसी अन्य बात ने मेरे मन में उसके प्रति अरुचि की भावना उत्पन्न कर दी । उसने देखा कि यहाँ के श्रादमी अक्खड़ हैं । एक दूसरे की वगल से निकलते हुए वे द्वाषपूर्ण शपथें खाते हैं । उसने केवल इन बातों को देखा अथवा समझा ही नहीं बल्कि वह स्वयम् मनुष्यों की उस धारा में मिल कर फुटपाथ के ऊपर इस प्रकार चलने लगा मानो वह किसी भी चीज को नहीं देख रहा हो और यह देख मैंने गुस्से में भर कर सोचा : “ तुम अभिनय कर रहे हो । मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं । " परन्तु मैंने अपने को बुरी तरह अपमानित अनुभव किया जब मैंने एक बार उस व्यक्ति को एक शराबी की मदद करते देखा जिसे एक घोड़े ने ठोकर मार कर गिरा दिया था । इसने उस शराबी को उठा कर खड़ा कर दिया और उसके तुरन्त वाद ही अपने पीले दस्ताने उतार कर कीचड़ में फेंक दिये । एक वार सर्कस का एक विशेष प्रोग्राम आधी रात के बाद समाप्त हुश्रा । अगस्त समाप्त हो रहा था । काले शून्याकाश से कॉच के चूरे जैसा पानी उस मेले के उदास और नीरस तम्बुओं की कतारों पर पड़ रहा था । सड़क की वत्तियों के धुंधले चकत्ते उस सीली हवा में गायब हो गये थे । सडक के घिसे पत्यरॉ पर चलने वाली किराये की गाड़ियों की खदसड़ाहट सुनाई दे रही थी । गैलरी में खड़े होकर सर्कस देखने वालों की भीद चिल्ला हुई बगल के दरवाजों में से निकल रही थी । वह विदूपक एक लम्बा वालों वाला कोट और उसी रङ्ग की टोपी पहने तथा काँख में अपना पतला बेत दवाए वाहर सड़क पर निकला । ऊपर के अन्धकार पर निगाह डालकर उसने जेवों से हाथ बाहर