८६ विदूषक मेले का दृश्य ऐसा दिखाई दे रहा था , मानो वोगा और प्रोका नदी के बीच में कोई मनुष्य की भीड़ का खूटा ठोक रहा हो । वह अपने पतले और खचीले बेंत को हाथ में पकड़े हुए उस पर इस वरह उँगलियाँ फेर ही था मानो वह एक बांसुरी हो । साथ ही धीरे धीरे सीटी बजाता हुश्रा कुछ गा रहा था । उस मेले और वोल्गा नदी से उठता हुआ, उसके लिए सर्वथा अपरिचित , कोलाहल का शब्द हवा में लहरा रहा था । स्टीमर , बजरे और नावे उस गन्दे पानी और उस पर पड़े हुए पेट्रोल के रंगीन धब्बों पर मुश्किल से रेंगती हुई आगे बढ़ रही थीं । सीटियों और लोहे के आपस में टकराने की आवाजें उसके कानों तक पहच रही थीं । किसी की ताकतवर हथेलियाँ पानी को काट रही थीं । दूर, नदी के किनारों से परे, जगन में लगी हुई श्राग दिखाई दे रही थी और धुधला नाल सूरज , जिसकी किरणें मानों तलवार से काट दी गई हों , गना सा , उस धुए से भरे हुए श्राकाश में चुपचाप लटक रहा था । अपने बेंत से, एक वृक्ष के तने पर ताल सहित ठकठक करते हुए , उस विदूषक ने गाना शुरू किया - इतने धीरे से मानो वह प्रार्थना कर रहा होः एक , संध्या , घास का मैदान , सुन्दर - " उसकी मुद्रा विचारपूर्ण और गम्भीर थी । भौंहों में गाठे पड़ी हुई थीं । उसके गीत के अद्भुत स्वरों ने मेरे मन में एक भय उत्पन्न कर दिया । मैं उसे सुरक्षित रूप से घर- मेले में ले भाना चाहता था । अचानक एक खजैला कुत्ता कहीं से आ गया । वह विदूषक की बगल में से निकल कर उससे दो कदम की दूरी पर वास में बैठ गया और एक लम्बी जम्हाई लेकर उसकी तरफ मुड़ कर देखने लगा । विदूषक ने सीने , खड़े होकर अपने बेत को बन्दूक की तरह कन्धे पर रखकर उस कुत्ते का तरफ निशाना साधा । ___ " हुरं -- - - " कुत्ता धीरे से घुर्राया । "र, , र, हाट ! " विदूपक ने विल्कुल कुत्त की सी धावाज में जवाव दिया । कुत्ता खड़ा हो गया और गुस्से से पीछे को हटा । विदपक ने
पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/८५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।