नमक का दलदल २३४ पूर्ण शान्ति थी । समुद्र से हवा का एक झोंका श्राया । एक नन्हा सा सफेद बादल का टुकड़ा पासमान पर तैरता हुश्रा जा रहा था । उससे छोटे छोटे भाप के टुकड़े टूट टूट कर आकाश की नीलिमा में घुनते चले जा रहे थे । वातावरण बड़ा उदास था । मैं उठा और नमक के उस ढेर की तरफ इस पक्के इरादे से गया कि वहाँ से विदा लेकर अपनी मछली मारने वालो झोंपड़ी में वापस लौट जाऊँगा । मटवी, उक्रन-निवासी , फोरमैन और तीन दूसरे मोटी गर्दनों वाले अधेड़ मजदूर उठ खड़े हुए और मेरे पास पहुँचने पर मुझसे मिलने आए और इससे पहले कि मैं एक भी शब्द कह सकूँ मट्वी ने मेरी तरफ अपना हाथ वढ़ा दिया और बिना मेरी तरफ देखे वोजा . " यह बात है, दोस्त अच्छा यह होगा कि तुम यहाँ से छोड़ कर वापस चले जाओ । हमने तुम्हारी मदद के लिए थोड़ा सा पैसा इकट्ठा कर लिया है । इसे ले लो । " उसके हाथ में थोड़े से तावे के सिक्के पदे हुए थे जो उसके मेरी तरफ हाय पढ़ाते समय बज उठे । मैं इस तरह स्तम्भित हो उठा या कि सिर्फ उनकी - तरफ ताकता रह गया । वे लोग सिर नीचेकिए , चुपचाप , बेवकूफों की सरह । अपने चिपड़ों को मरोड़त , पर बदलते , चारों तरफ निगाह चुराते हुए देखते अपने कन्धे उचकाते खड़े थे । उनकी हरेक हरकत से यह स्पष्ट हो रहा था कि वे बहुत परेशान ये और जल्दी से जल्दी मुझसे छुटकारा पाना चाह रहे थे । " में नहीं लूगा, " मटवी के हाथ को दूर हटाते हुए मैंने कहा । " अच्छा, अच्छा, हमारा अपमान मत करो । हम लोग सचमुच इतने घुर नहीं है । हम जानते है कि हमने तुम्हारे दिल को चोट पहुंचाई है मगर जर तुम इतनी श्रामानी से फस गए तो क्या यह हमारा दोप है ? नहीं, हमारा दोप नहीं है । यह तो जिन्दगी के टस तरीके का दोष है जिसमें हम सब रह रहे हैं । हम लोग भी केसी जिन्दगी बिता रहे है । एक कुत्ते की सो जिन्दगी । मनो मारी ठेजा , पैरों को काटने वालो यह नमकीन कीचड़, दिन भर पीत पर तपने वाला सूरज , भोर - पचास कोपेक रोजाना को वनस्वाह । यह सब किसी
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