नमक का दलदल २२६ मुझे इस तरह का अनुभव नहीं हुया था और मैंने ऐसे व्यवहार के योग्य कभी कोई काम नहीं किया था । इससे पहले भी अनेक अवसर ऐसे पाए थे जय मैने अन्य मसदूरों के साथ मिल कर काम किया था और प्रारम्भ से ही हमारे सम्बन्ध मित्रतापूर्ण और पारस्परिक सहयोग के रहे थे । यहाँ के वातावरण में कुछ विचित्रता थी और अपने अपमान और चोट के बावजूद भी मेरे हृदय में इसे जानने की जिज्ञासा बलवती हो उठी । मैंने इस रहस्य का उद्घाटन करने का निश्चय कर लिया और ऐसा निश्चय कर मैं बाहर से बिल्कुल गान्त हो कर उन लोगों को खाना खाते देखता रहा और उनके काम पर वापस जाने को प्रतीक्षा करने लगा । इस बात का पता लगाना वहा जरूरी था कि मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्या किया गया । अाखिरकार उन्होंने खाना समाप्त किया , उकार ली और तम्बाखू पनि हुए उस वर्तन से दूर हट कर घूमने लगे । वह भीमकाय उकन-निवासी और टांगों में पट्टियां लपेटे वह बदका पाकर मेरे सामने बैठ गए जिससे तस्तों पर छोदे गए ठेलों की कतार मेरो निगाह से धोमल हो गई । " तम्याखू पीना चाहते हो दोस्त ? उसन-निवासी ने पूछा । " शुक्रियाः मुझे कोई परहेज नही , " मैंने जवाब दिया । " तुम्हारे पास अपनी तम्बार नहीं है ? " " अगर होती तो तुमसे न लेता । " "ठीक है । लो , " और उसने मुझे अपना पाइप पकदा दिया " क्या यहाँ बरापर काम करने का इरादा है " " हो , जय तक कर सकूगा । " " हु, यहाँ से शाये हो ? मैने उसे यसा दिया । " पया यहाँ से बहुत दूर है ? " " लगभग तीन हजार नील " " मोहो । सात दूर है । नहीं दे पा गए ?
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