बुढ़िया इजरगिल ६७१ तो मुझे ऐसा लगता कि कहीं उसको यह सूखी हुई खाल चटक कर और टुकड़े-टुकड़े होकर नीचे न गिर पडे और मेरी आँखो के सामने काली निष्प्रभ आँखों वाला कोई कंकाल खड़ा रह जाय । - उसने पुनः अपनी कांपती और कर्कश आवाज़ में कहना शुरू किया : "विरलत नदी के किनारे , फालमा नामक स्थान में मैं अपनी मां के साथ रहती थी । मैं पन्द्रह वर्ष की थी जब वह पहली बार हमारे खेत पर श्राया । वह लम्बा और सुन्दर था । उसकी मूंछ काली थीं । और वह अन्यन्त हँसमुरा प्रतीत होता था । वह एक नाव में बैठकर पाया और उसने सुरोली मधुर आवाज़ में पुकारा जिससे कि हम खिड़की से उसे सुन ले - "ग ! क्या तुम्हारे पाप कोई शराब ई और खाने के लिए भी कुछ है ? " मैंने खिटकी से बाहर झाँका थोर अवरोट के पेन की साखों में से नदी की ओर देखा जो चांद को रोशनी में बिल्कुल नीली दिपाई दे रही थी । वह एक छोटी कमीज पहने हुए था । कमर में एक चौड़ी पेटी बंधी थी जिसके दोनों छोर लटक रहे थे । वह एक पैर नाव में तथा दूसरा किनारे पर रखे हुए ममता हुश्रा गा रहा था । मुझे देखकर बोला - "कितनी सुन्दर दोकरी यहाँ रहती है और मुझे मालूम भी न हुश्रा ? " जैसे कि वह मुझे छोटकर संसार भर की सब सुन्दर लड़कियों को जानता हो । मैंने उसे शराव और सुधर का उबला हुमा गोश्त दिया । इसके चौधे दिन मैंने पूर्ण रूप में अपने को टमे दे दिया । रात को हम दोनों एक साथ नाय पर घूमने जाते । बद रोज शाता और गिलहरी की सरह धीमी मीटी बजाता । मैं एक महली के समान विदको में होकर नदी में पद पपती धार तय हम दर , बहुत दूर तक नार में चले माते । यह सूट कही पर मार का काम परता था । बाद में जय मेरी मां यो म पु म. राम पड़ गया चौर टमने मुझे मारा तो मेरे प्रेमी ने मुझे अपने सार दोन जा भाग चलने के लिए य ह टसमे भी छा दन्युय नदी की माय नदियों की ओर जाने को संचार या । परन् तब तक समये प्रति मेरा मात्र हो चुका था क्योंषि या देवन्त गाता और सुमन देता था , इनसे अधिक भार नहीं करता था । मैं उससे उप
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