बुदिया इजरगिल १६६ किया था । इवना सब कुछ होते हुए भी उसमें एक शङ्कित और गुलाम मन की सी घुटन थी । तट पर लोग अनोखे ढङ्ग से गा रहे थे । पहले एक पतली, मधुर वहराती हुई थावाज़ पाई । इसने गीत की दो तीन कढ़ियाँ गाई फिर एक दूसरी धावाज़ ने इस गीत को प्रारम्भ से गाना शुरू किया । पहली शावाज पूर्ववत् गाती रही । इसके उपरान्त एक तीसरी , चौथी और पाँचवीं श्रावाज ने इस गीत को गाया - एक दूसरे के बाद । अचानक वही गीत पुनः प्रारम्भ किया गया । इस बार कई यादमी मिलकर उसे गा रहे थे । प्रत्येक स्त्री की आवाज दूसरों की आवाज से बिल्कुल अलग सुनाई दे रही थी । उन सब के सम्मिलित स्वरों से संगीत की ऐसी धारा प्रवाहित हो उठी थी जैसे इन्द्रधनुपी रंगों वाला एक पहाड़ी झरना पहाड़ की ऊँची नीची जमीन पर उछलता चूदता कलकल करता बह रहा हो । उन स्त्रियों का यह मधुर स्वर जय पुरष कठों से निकले हुए स्वर से मिलता तो ऐसा प्रतीत होता माना नीचे से जल का एक भीषण प्रवाह , करने के उस कोमल प्रवाह फो आत्मसात् करने, भयंकर लहरें उत्पन्न करता हुघा, निरन्तर ऊपर चढ़ा जा रहा हो । संगीत के इन स्वरों में समुद्र का गर्जन डूब गया था । [ २ ] " तुमने कभी ऐसा संगीत अन्यत्र भी सुना है ! " इजरगिल ने सिर का कर तथा मुस्कराकर अपना पोपला, बिना दाता वाला. मुरा सोलते हुए पूछा । "नहीं । मैंने ऐमा संगीत धन्यत्र कहीं भी कहीं मुना .... " " और न नुम कभी नुन सकोगे । तुम गाने के बहुन शौकीन मालूम पर हो । कंचन सुन्दर प्यमि , जिन्हें जीवन से प्रेम , चन्दा गाना गा सकते हैं । इन जीरन को प्रेम करते हैं । यहाँ गाने वाले वे मनुष्य
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