पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१६६

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१६६ धुढ़िया इज़रगिल . - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ___ " अच्छा , ठीक है । मैं तुम लोगों को बताऊँगा यद्यपि मैं स्वयं ठीक तरह से नहीं जानता कि क्या हुआ था । मेरा ख्याल है कि मैंने उसे मार डाला क्योंकि उसने मेरी अवहेलना की थी । लेकिन मैं उसे चाहता था । " " लेकिन वह तुम्हारी तो नहीं थी " उससे कहा गया । " क्या तुम सदैव उसी वस्तु को काम में लाते हो जो तुम्हारी होती है ? परन्तु इस संसार में हरेक मनुष्य के पास केवन बोलने की शक्ति , हाथ और पैर ही अपने होते हैं मगर वह पशु, स्त्री, जमीन और न जाने कितनी अन्य वस्तुएँ अपने अधिकार में रखता हैं " इसके उत्तर में उसे बताया गया कि इन सब वस्तुओं को मनुष्य धन देकर खरीदता है । वह इनके लिए अपनी बुद्धि , अपनी शकि और कभी कमी अवसर पड़ने पर अपने प्राणों की कीमत चकाता है परन्तु उसने उत्तर दिया कि वह अपने को उन लोगों से पूर्ण रूप से अलग रखना चाहता है । उन्होंने उससे बहुत देर तक बहस की और इस परिणाम पर पहुंचे कि वह इस ससार में अपने को एकमात्र और सर्प श्रेष्ठ समझता है तथा अपने अतिरिक्त दूसरों के विषय में कमी नहीं सोचवा । उसकी इस एकाकी रहने की भावना की भयकरता से वे सिहर उठे । उसके विचार कितने भयानक थे । उसको कोई जाति नहीं थी , और न उसके पशु, पत्नी श्रादि ही थे । वह इस प्रकार की कोई वस्तु चाहता भी न था । जव उन लोगों को उसके विचारों का पूर्ण ज्ञान हो गया तो उन्होंने पुन उसके लिए उचित दह निश्चित करने के लिए वाद विप्रारम्भ कर दिया । लेकिन इस बार उन्होंने देर न लगाई । वह बुद्धिमान व्यक्ति , जो अब तक चुप बैठा था , बोला "ठहरो । मैंने एक दंद सोचा है, बहुत भयंकर दण्ड । तुम हजारों धपों तक सिर खपाने पर भी ऐसा दंड नहीं सोच सकते । उसे छोड़ • पूर्णत स्वतन्त्र छोर दो । यही उसका दंद होगा ।