१६० बुढ़िया इज़रगिल मेरी कल्पना ने उन्हें एक सुन्दर श्रावरण में लपेटना प्रारम्भ कर दिया । कोई एक बेला वजा रहा था । एक लड़की धीमी मधुर आवाज में गा रही थी , हंसने की आवाज भी सुनाई दे रही थी । हवा में समुद्र की तीखी गन्ध भरी हुई थी । जमीन से सोधी सीलक्ष भरी हुई गन्ध उठ रही थी । यद्यपि शाम होने से पहले वर्षा से इस गन्ध को धोने का पूरा प्रयत्न किया था । श्राकाश में इधर उधर विभिन्न आध तियां और रगों के बादलों के छोटे छोटे टुकड़े घूम रहे थे । कहीं वे हलके धुयें के नीले और राख जैसे रंग के प्रतीत होते और कहीं गहरे काले रंग के जैसे हलकी काली चट्टान के टुकड़े हों । उनके बीच से गहरा नीला श्राकाश माक उठता था जिसमें सुनहली सितारे जड़े हुए थे । यह सब चीजे - ध्वनियाँ और गन्ध, बादल और मनुष्य - बहुत सुन्दर लग रहे थे परन्तु उनमें सर्वत्र एक दुस की छाया सी पड़ी हुई मालूम पड़ती थीं मानों वे किसी दुखान्त नाटक के प्रारम्भिक पात्र हों । और प्रत्येक वस्तु ऐसी प्रतीत होती थी मानो उसके विकास को रोक दिया गया हो और असमय में ही वह नष्ट हाने लगो हो । भावाजे दूर होती जा रही थीं और दूर और दूर होते होते अन्त मे एक करुणापूर्ण सिसकी सी सुनाई देने लगी थीं । " तुम उनके साथ क्यों नहीं गए ? " उस दिशा की ओर इशारा करते हुए, जिधर वे लोग गए थे, बुडिया इज़रगिल ने मुझसे पूछा । समय ने उसकी कमर मुझा दी थी । किसी समय रहे हुए उज्वल नेत्रों की भाभा फीकी और बुधली पढ़ गई थी । उसकी कॉपती सी नीरस थावाज अद्भुत प्रतीत होती थी । उस प्राधाज में एक विशेष प्रकार की खड़ खड़ाहट सी थी मानों उसकी हड्डियाँ बज रही हों । "मेरा मन नहीं था । " मैंने उत्तर दिया । " उँह, तुम सभी त्यो जन्म से ही बुड्ढों जैसे मन वाले होते हो । तुम पिशाच की तरह सुस्न और काहिल भी हो । हमारी लड़कियाँ तुमसे डरती है । मगर तुम तो जवान और तास्तवर हो । " चाँद निकला-थाली जैसा बड़ा और गोल , गहरे खूनी रग का ।
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