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गोरा

गोरा अब संगीत विद्याका परिचय देनेका समय आया जान ललिता उस कमरेसे बाहर हो गई। बाहरकी छत पर तब खूब जोर-शोरकी बहस चल रही थी। हारान बावू मारे क्रोधके तर्क छोड़कर गाली देने पर उद्यत हो गये थे। उनकी असहिष्णुतासे लज्जित और क्रुद्ध होकर सुचरिताने गोराका पक्ष ले लिया यह भी हारानके लिये कुछ सान्त्वना या शान्तिदायक न हुआ । सन्ध्याके अन्धकार और सावनके वादलोंसे आकाश घिर गया। बेला चमेली की मालाओंसे सड़कको सुवासित करता हुआ फेरीवाला चला गया । सामनेकी सड़क पर मौलसिरीके पत्तों पर जुगनुए जगमगाने लगी 1 पासके बागीचेवाले तालाव पर गहरा अन्धकार छा गया। सन्ध्याकी ब्रह्मोपासना करके परेश बाबू फिर छत पर या उपस्थित हुए । इनको देखकर गोरा और हारान बाबू दोनों लज्जित होकर चुप हो गये । गोरा उठकर खड़ा हुआ और बोला-रात हो गई, अब मैं जाता हूँ विनय भी कमरेसे निकल कर छत पर आया । परेश बाबूने गोरासे कहा-जब तुम्हारी इच्छा हो, यहाँ आया करो। कृष्णदयाल मेरे भाईके बराबर हैं । उनके साथ मेरा मत नहीं मिलता, मेट भी नहीं होती, पत्र न्यवहार भी बन्द है किन्तु लड़कपनकी मित्रता रक्तमाँस में मिल जाती है, वह क्या कभी छूट सकती है ? कृष्ण बाबूके सम्पर्कसे तुम्हारे साथ मेरा बहुत निकट का सम्बन्ध है। परेश बाबूके शान्ति और स्नेह भरे स्वरसे गोराका इतनी देर के तर्कसे सन्तप्त हृदय मानो ठंडा हो गया। उसके हृदयकी जलन बुझ गई। पहले आकर गोराने परेश बाबूको कुछ विशेष श्रद्धा या भक्तिसे अभिवादन न किया था। किन्तु जाते समय उसने सच्ची भक्ति के साथ उनको प्रणाम किया । चलते समय गोराने सुचरितासे कुछ भी न कहा । सुचरिताने, जो सामने खड़ी थी, यह स्वीकार करना ही एक प्रकारकी अशिष्टता समझी। विनयने परेश बाबूको विनयपूर्वक प्रणाम करके सुचरिताकी अोर देखा