गोरा [४६७ गोगने कहा---श्राम मैं मुक्त हूँ परेश बाबू मुके अब भय नहीं है कि मैं किसी कामसे पतित हो जाऊँगा अब मुझे पग-पग पर जमीन की तरफ देखकर पवित्रताकी रक्षा करके चलना होगा। सुचरिता गोराके प्रदीप्त उज्ज्वल मुम्बकी ओर एक टक ताक लगी। गोराने कहा परेश बाबू इतने दिनों तक भारतवर्ष को पाने के लिए मन सम्पूर्ण हृदय से मन, वाणी कायासे---साधनाकी मगर एक न एक जगह जाकर रुकावट पड़ती ही गई ! उन सव बाधायासे अपनी श्रद्धा का मेल करने के लिए मैं जीवन भर दिनरात केवल चेष्टा करता आया हूँ उसी भद्धाकी नींवको खूब मजबूत बनानेकी चेष्टामें फंसे रह कर मैं और कोई काम ही नहीं कर सका, वही मेरी एक मात्र साधना थी इसी कारण यथार्थ भारतवर्ष की ओर सच्ची दृष्टि फैलाकर उसकी सेवा करने जाकर मैं बार-बार डरसे लौट आया हूँ--मैंने एक निष्कएटक निर्विकार भावके भारतवर्षको गढ़कर उसी अभेद्य दुर्गसे अपनी भक्ति को सम्पूर्ण निरापद मावसे सुरक्षित करने के लिए अव तक अपने चारों ओरकी वलुओंके साथ बहुत बड़ा युद्ध किया है। आज एक दम भरमें ही मेरा वह भाव दुर्ग स्वा की तरह गायब हो गया है। मैं एक दम छुटकारा पाकर अचानक एक बहुत बड़े सत्यके बीचमें आ पड़ा हूँ ? समन मारतवर्षका भला-बुरा, मुख-दुख, ज्ञान-नशान एकदम बिलकुल मेरे हृदयके निकट पाकर पहुंच गया है। अाज मैं वास्तवमें उसकी सेवाका अधिकारी हो गया हूँ यथार्थ कर्म क्षेत्र मेरे सामने आकर उरस्थित हुन्छा है । वह मेरे मन के भीतर कल्पनाम क्षेत्र नहीं है। वह इन शहर के करोड़ों मनुष्योंके यथार्थ कल्याएका क्षेत्र है , गोराकी इस नव लब्ध अनुभूतिके प्रबल उत्साह का वेग परेशबाबू के मी जैसे हिलाने लगा। उनसे बैठे नहीं रह गया वह कुर्सी छोड़कर उन खड़े हुये। गोराने कहा -मेरी बातें क्या आपकी समझमें ठीक-ठीक पारही हैं ! मैं दिन रात जो कुछ होना चाहता था मगर हो नहीं पाता था वहीं मैं नाज आप हीसे हो गया हूं। में आज भारतीय हूँ. मेरे हृदय में प्रोज फा० नं० ३२
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