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गोरा

1 ४७२ ] गोरा बात सर्वथा अमूलक है। प्रजा के सम्बन्ध में राजा को जिस ज्ञानकी आवश्यकता है वह प्रजाके विशेष सम्पर्क से दूषित हो जाता है। इस कारण प्रजा आप ही अपने राजासे दूर रहकर उसकी प्राजाका पालन करती है। अगर राजा प्रजा का सहचर हो जाय तो उसकी जरूरत ही न रहे। ब्राह्मण को भी उसी तरह सबसे दूरस्थ और निलीप्त रहना चाहिए । ब्राह्मणको बहुतोंका मगंल करना पड़ता है इसलिए वह बहुतों के संसर्ग से बचकर रहे इसीमें कुशल गोरा ने कहा-मैं भारतवर्षका वही ब्राह्मण हूं। किन्तु जो ब्राह्मण लोगोंके साथ सम्पर्क रखते हैं और व्यवसाय के कीचड़ में लोट, धनके लोभमें पड़, शूद्रत्यकी रस्सी गलेमें बाँधकर मरनेको तैयार हैं उनकी गणना गोराने स्वदेशके सजीव पदार्थी में नहीं की। उन्हें शूद्रसे भी नीच समझा । क्योंकि शूद्र अपने शूद्रत्वकी रक्षा करके जीवित है, किन्तु ये ब्राह्मणत्व के अभावसे मृतप्राय हैं । इसी लिए ये अपवित्र और शक्ति हीन है । भारतवर्ष इन्हीं के कारण आज ऐसा दीन होकर अशौच में है। इसके पूर्व गोरा का मन कभी देव-पूजामें नहीं लगता था । जब से उसका हृदय इन बातों को सोचकर चुन्ध हो उठा है तब से उसकी कुछ और ही धारणा हो गई है। सभी काम उसे निस्सार मालूम होते हैं। इस असार संसार का विचार कर जब वह कुछ पार न पाया तब देव-पूजा में मन लगानेका ही उसने निश्चय किया। कुछ दिनसे वह देवमूर्तिके सामने बैठकर उस मूर्तिमें अपने मनको एकदम निविष्ट कर देना चाहता है। परन्तु वह किसी उपायसे अपनी चित्त-वृत्ति को उस मूर्तिमें स्थिर नहीं कर सकता । वह बुद्धि के द्वारा देवता की व्याख्या करता है, उसकी महिमा गाता है। परन्तु कल्पित मूर्तिके आगे उससे भक्ति करतेनहीं बनता। आध्यात्मिक दृष्टिसे मूर्ति-पूजा नहीं की जाती। मन्दिरमें बैठकर मूर्ति-पूजा की कोई चेष्टा न करके जब वह घर बैठकर किसी के साथ आध्यात्मिक आलोचना करता था या एकान्त । >