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गोरा

गोरा ललिता भी वहाँ से जाने के लिए उधत होकर फिर जरा ठहर गई, और उसने विनय की ओर पीठ करके हम लोगोंकी इच्छा अगर अनु- चित इच्छ्य न हो, और वह इच्छा अगर किसी एक समाजके विधानके साथ अाधन्त न मिले तो सिर नीचा करके हमारे पीछे लौट जाने की बात किसी तरह मेरी समझ में नहीं आती। समाजमें असत्य व्यवहारके लिये स्थान है, केवल न्याय सङ्गत आचरण के लिये ही स्थान नहीं है ? विनयने धीरे-धीरे ललिताके पास श्राकर खड़े होकर कहा-मैं किसी भी समाज को नहीं डरता । हम दोनों जने मिल कर अगर सत्यका आश्रय ग्रहण करें तो हमारे समाज जैसा इतना बड़ा समाज और कहाँ पाया जायगा ! वरदासुन्दरीने इसी समय आँधीकी तरह दोनों जनोंके सामने लाकर कहा--विनय, मैंने सुना है, तुम दीक्षा न लोगे- क्यों ? विनय-दीक्षा मैं योग्य शुरु से लूंगा--किसी समाज से नहीं । ललिताने कहा--विनय बाबूकी दीक्षाके बारे में ब्राह्म-समाजके सब आदमियोंकी तो सम्मति नहीं है । नाम-समाजका मुख पत्र तो तुमने पढ़ कर देखा है ? ऐसी दीक्षा लेने की जरूरत क्या है ? वरदा. -दीक्षा लिये बिना विवाह कैसे होगा ? ललिता-क्यों न होगा! वरदा...---हिन्दु मत से होगा क्या ? विनय-सो हो सकता है। जो कुछ बाधा है, वह मैं दूर कर दूंगा। कुछ देर तक वरदासुन्दरीके मुखसे बात नहीं निकली। उसके बाद सँधे हुए गले से उन्होंने कहा-विनय, जानो तुम जानो ! इस घर में फिर तुम न माना।