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[ ५८ ] विनय ने आनन्दमयी से कहा-मां, मैं परसों ब्राह्म-समाज में दीक्षा लूगा! अानन्दमयी ने विस्मित होकर कहा -यह कैसी बात ई विनय ? दीक्षा लेना क्या ऐसा ही जरूरी हो पड़ा है ? विनय-हाँ, लेना जरूरी हो बड़ा है । श्रानन्द० --तेरा जो कुछ विश्वास है, उसे लेकर क्या नू हमारे सनान में रह नहीं सकता? विनय-रहने से कपट करने का पाप होगा । अानन्द--कपट न करके रहने का नुझे साहस नहीं है ? समाज के लोग उस दशा में कट देंगे-तो कष्ट सहकर न रह नहीं सकेगा? विनव-माँ, मैं अगर हिन्दू समाज के नत में न चलू नो...! आनन्द.-हिन्दू समाज में अगर तीन सौ नतीस करोई नत बत सकते हैं, तो तेरा ही मत क्या नहीं चलेगा ? विनय -मगर मां हमारे समाज के लोग अगर कहें कि नुन हिन्दू नहीं हो, तो मेरे जबरदस्ती कहने से ही क्या मैं हिन्दू बना रहूँगा। आनन्द-मुझे तो मेरे समाज के लोग ईसाई कहते हैं तो न नुझे उनके ईसाई कहने से ही उनकी वह बात मुझे मान लेनी ही होगी, ऐसा तो मैं नहीं समझती जिसे मैं उचित जानी-मानती हूँ उसके लिए कहीं भाग कर बैठ रहने को मैं न्याय समझती हूँ। विनय इसका उत्तर देने जा रहा था । अानन्दमयी ने कुछ कहने न देकर कहा-विनय मैं तुझे बहस न करने दूंगी। यह बहस की बात नहीं है ! मैं देख पा रही हूँ कि मेरे साथ बहस करने का बहाना लेकर तू जबरदस्ती अपने को बहलाने की चेष्टा करता है। किन्तु इतने बड़े गुरु- तर मामले में इस तरह धोखाधड़ी चलाने का इरादा मत कर !