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गोरा

३७८] गोरा शान्ति भङ्ग कराने वाले दस्थ की तरह देखते हैं, यह लयाल करके विनय, सकुचित हो उठा, और कुर्सी पर बैठ गया। शरीरिक स्वास्थ्य इत्यादिके सम्बन्धमें प्रश्न करके साधारण शिष्टाचार हो चुकते ही विनयने एकदम कहना शुरू कर दिया कि मैं जब हिन्दूसमाज के आचार-विचारको श्रद्धाके साथ नहीं मानता, और निस्य ही उसका उल्लंघन करता रहता हूं, तब ब्राह्म-समाजका आश्रय ग्रहण करना ही मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूं। मेरी यही इच्छा है कि मैं आप ही के निकट दीक्षा ग्रहण करूँ। यह इच्छा और यह विचार पन्द्रह मिनट पहले तक भी विनय के मनमें स्पष्ट आकारमें कदापि न था। परेश बाबू क्षण भर चुप रह कर बोले- अच्छी तरह सब बातों पर गौर करके देख तो लिया है न ? विनय.-इसमें और तो कुछ सोचने या गौर करनेकी बात नहीं है, केवल यही देखने का विषय है कि मेरा कार्य न्याय है या अन्याय । सो यह खूब सादी सी बात है। हम लोगोंने जो शिक्षा पाई है, उसके द्वारा किसी तरह निष्कपट चिरसे केवल आचार विचार को ही उल्लंघनीय धर्म नहीं मान सकता। इसी कारण मेरे व्यवहार अथवा आचरणमें पग पग पर अनेक प्रकारकी असङ्गति देख पड़ती है जो लोग श्रद्धाके साथ हिन्दू समाज का आश्रय लिए हुए हैं, उनके साथ संसर्ग रखने के कारण उनको मैं केवल आघात ही पहुँचाया करता हूँ। यह मैं अत्यन्त अन्याय कर रहा हूँ, इस बारे में मेरे मन को कुछ भी सन्देह नहीं है। ऐसे स्थल में, ऐसी दशा में और कोई बात न सोचकर अपने अन्याय को दूर करने के लिये ही मुझे प्रस्तुत होना होगा । नहीं तो मैं अपनी ही दृष्टि में अपने सम्मान की रक्षा न कर सकूँगा। परेश बाबूको समझाने के लिए इतनी बातोंका प्रयोजन नहीं था; ये सब बातें विनयने अपने मनको जोरदार बनानेके लिए ही कही। वह एक न्याव अन्यायके द्वन्द-युद्धके बीच में ही पड़ गया है, और इस युद्ध में सब त्याग कर न्यायके पक्षमें ही जय प्राप्त करनी होगी- यह बात कह कर