यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ ३६७
गोरा

झलक रही थी। मालूम होता था जैसे उसकी आँखें सम्मुख स्थित सब पदार्थों के पीछे कोई अपूर्व मूर्ति देख रही है । गोरा का चित्त आनन्द उद्धांत था इस कारण वह पहले की भाँति न पहचान सका कि घर में माँ के पास कौन बैठा है सुचरिताने खड़ी होकर गोरा को अभिवादन किया । गोराने कहा- अच्छा! पार आई है, बैठिये । "श्राप आई हैं ।" गोराने ऐसे भाव से कहा, जैसे सुचरिता का आना असाधारण रूपसे हुश्रा है । मानो इसका श्रागमन एक विशेष प्राविनव है। एक दिन इसी सुचरिता को देखकर, उसके साथ बात चीत करके, गोरा घर छोड़कर भाग गया था। जितने दिन वह अपने ऊपर माँति भाँति के काट और देश का काम लेकर घूम रहा था, उतने दिन सुचरिता की बात वह मनसे बहुत कुछ अलग रखता था । मानो सुचरिता उसके स्मृतिपथ स हट गई थी । परन्तु कैदखानेके भीतर यह नुचरिता के स्मरण को किसी तरह मनसे दूर न कर सका । एक दिन वह था, जब गोराके मनमें कभी इस बातका उदय तक न होता था कि भारतवर्ष में त्रियाँ है। इतने दिन बाद सुचरिता को देखकर ही स्त्रियों का अस्तित्त्व उसके मनमें उदित हुा । जिस विषयका ज्ञान उसे स्वप्न में भी न था, वह एकाएक हृदय-पट पर प्रतिविम्बित होने से उसका बलिष्ट स्वभाव काँप उठा। जेल से बाहर होते ही गोरा ने जब परेश बाबू को देखा, तब उसका मन आनन्द से उल्लसित हो उठा। वह केवल परंश बाबू से भेंट होनेका ही अानन्द न था बल्कि उम अानन्द के साथ गोरा की इन कई दिनोंकी सङ्गेनी कल्पनाने भी बहुत कुछ अपनी माया मिला दी थी, पहले यह उसकी समझ में न आया किन्तु कुछ ही देर में वह समन गया। टीमर पर आते-आते उसने मली. नाँति अनुभव किया कि परेशबाबू जो उसे खींच रहे हैं वह केवल अपने ही गुण से नहीं। । -

-