गोरा [ ३६५ । यदि समाज में ललिता को अपमान का दुःख भोगना ही बदा है तो उसका कोई उपाय नहीं। विनय-किन्तु उस दुःख का निवारण करना तो मेरे हाथ में है। गोरा-है तो अच्छा ही है ! किन्तु यह हठ करने से तो न होगा। कोई अन्य उपाय न रहने से चोरी करना या खून करना मी तो मनुष्य के हाथ में है किन्तु यह क्या कोई कर्तव्य है ? ललिता के साथ विवाह करके तुम उसके प्रति कर्तव्य करना चाहते हो, क्या यही तुम्हारे कर्त्तव्य की इति श्री है ? अपने समाज के प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं ? विनय-मालूम होता इस जगह तुम्हारे साथ मेरा मत न निलेगा। मैं व्यक्ति की ओर आकृष्ट होकर समाज के विरुद्ध कोई बात नहीं बोलता । मैं कहता हूँ, व्यक्ति और समाज दोनों के ऊपर एक धर्म है। उसी के ऊपर दृष्टि रखकर चलना होगा। जैसे व्यक्ति का बचाना मेरा परम कर्तव्य नहीं वैसे समाजका मन रखना भी मेरा परम कर्त्तव्य नहीं। एक मात्र धर्म की रक्षा करना ही मेरा परम कर्तव्य है। गोरा-जो धर्म व्यक्तिगत नहीं, समाजगत नहीं, उसको मैं धर्म नहीं मानता। विनयकी आँखे रङ्ग गई। उसने कहा -मैं मानता हूं। व्यक्ति और समाज की मित्ति पर धर्म नहीं है, धर्मकी दीवार पर ही व्यक्ति और समाज स्थित है। समाज जिसे चाहे उसी को यदि धर्म मान लिया जाय तो यह समाज का मानों एक तरह से नाश करना हुना। यदि समाज मेरी किसी धर्म सङ्गत स्वाधीनता में बाधा डाले तो इस अनुचित बाधा को न मानकर चलने ही में समाजके प्रति कर्तव्य पालन कहा जायगा । यदि ललिता से मेरा व्याह करना अन्याय नहीं है, बरंच उचित है, तो ऐसी अवस्था में समाज प्रतिकूल होने के करण उससे निरन्तर हो जाना ही मेरे लिये अधर्म होगा। गोरा-न्याय अन्याय क्या अकेले तुम्हारे ही ऊपर निर्भर है ? इस विवाह के द्वारा तुम अपनी भावी सन्तानों को कहाँ ले जानोगे, बात को भी तो एक बार सोचो। v 1
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