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गोरा

गोरा । ३५६ ] आनन्द-मुझे तो यह खूब ही सहज जान पड़ता है बेटी । देखो, मेरे घरसे जो नियम चलता है, उस नियम को मानकर मैं नहीं चल पाती और इसीलिये लोग मुझे क्रिस्तान भी कहते हैं। किसी काम-काजके समय मैं अपनी इच्छासे ही अलग रहती हूँ। तुम सुनकर हँसोगी बेटी, गोरा मेरी दालनमें पानी तक नहीं पीता । किन्तु इसीसे मैं यह क्यों कहूंगी कि यह घर मेरा घर नहीं है यह समाज मेरा समाज नहीं है । मैं तो कह ही नहीं सकती। सब निन्दा और अपमान सिर आँखों पर धारण कर मैं यही घर और यही समाज लिये हूँ और उसमें मेरा तो कुछ काम नहीं अटकता, मुझे तो कुछ कठिनाई नहीं होती है। अगर इस तरह अटकाव हो कि आगे काम न चल सके तो फिर ईश्वर जो राह दिखावेंगे वही राह पकगी। किन्तु जो मेरा है, उसे अंत तक अपना ही कहूंगी। हाँ वे अगर मुझे स्वीकार न करें, तो उसकी वात वे जानें। सुचरिता की समझमें अब भी मामला साफ नहीं हुश्रा । उसने कहा-मगर देखिये, ब्राह्म-समाज का जो मत है, विनय बाबू का अगर अानन्द-उसका मत मी तो उसी तरह का है। ब्राझा-समाज का मत तो दुनियासे निराला नहीं है । तुम्हारे पत्रोंमें जो सब उपदेश छपते हैं, उन्हें तो विनय अवसर पढ़कर सुनाया करता है । मुझे तो किसी जगह फर्क नहीं समझ पड़ता! इसी समय 'सूची दीदी' कहकर कोटरीसे प्रवेश करते ही आनन्दमयी को देखकर ललिता लज्जासे लाल हो उठी। उसने सुचरिता का मुख देखकर ही समझ लिया कि अब तक उसी की बातें हो रही थीं। कोठरीसे भाग सकनेसे ही उसकी जान जैसे बचती; किन्तु उस समय वहाँसे भाग खड़े होने का उपाय न था । अानन्दमयी कह उटी-आओ बेरी ललिता, आश्रो! ---