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गोरा

! ३१८] गोरा परेश बाबू ने अपनी लड़की के मुँहकी ओर देखकर स्नेह-मरे स्वर में कहा—क्यों नहीं ले सकोगी वेटी ! किन्तु वैसा गर्ल्स स्कूल है कहाँ ? ललिताने व्याकुल होकर कहा-क्या सचमुच पाठशालाएँ नहीं हैं ? परेश वाबू ने कहा- कहीं देखने में तो नहीं आती। ललिता-अच्छा, पिताजी ! क्या एक कन्या पाठशाला खोली नहीं जा सकती? परेश वाबू क्यों नहीं खोली जा सकती ? परन्तु इसके लिए पूरा खर्च चाहिए और इसमें अनेक लोगों की सहायता की दरकार है। ललिता जानती थी कि अच्छे काम ओर चित्तका मुकाव होना ही ऋठिन है किन्तु उसके साधन-पथ में जो इतनी बाधाएँ है, यह वही पहले नहीं समझती थी। कुछ देर चुप-चाप बैठकर वह वहाँ से उठकर धीरे- धीरे चली गई । परेश बाबू अपनी लड़की के मानसिक दुःखका कारण हूंढ़ने लगे। वे जब इस बात को सोचने लगे तव विनय के सम्बन्ध में जो हारान बाबू उस दिन कुछ कह गये थे वह भी उन्हें याद हो आया । उन्होंने लम्बी साँस लेकर अपने मन से पूछा-तो क्या मैंने भूल की है ? उसके सिवा कोई दूसरी लड़की होती तो विशेष चिन्ता का कारण न था, किन्तु ललिता के चरित्र को वे बहुत विशुद्ध मानते थे। छल प्रपश्च किले कहते हैं, यह तो वह जानती ही नहीं। उसी दिन दोपहरको ललिता सुचरिताके घर गई। उसके घर में सजावटकी कोई चीज देखने में न आई । घरके भीतर दो चटाइयाँ बिछी थीं। उसी पर एक ओर सुचरिताका और दूसरी ओर हरिमोहिनीका बिछौना था। हरिमोहिनी चारपाई पर नहीं सोती हैं इस कारण सुचरिता भी उसके साथ एक कमरेमें नीचे चिछौना करके सोती हैं । दीवाल पर परेश बाबू का चित्र टंगा है। उस कमरेसे सटी कोठरीमें सतीशकी चारपाई बिछी है और एक कोने में एक छोटी टेबल पर दावात-कलम कापी-स्लेट और किताबे आदि लिखने-पढ़नेका सामान जहां-तहां बिखरा पड़ा है। एक आध कापी और किताब टेबलके नीचे भी गिरी पड़ी है ? । -