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[ ३९ ] वरदासुन्दरी अपनी ब्राह्म-बहिनों को सभाके लिए प्रायः अपने घर बुलाने लगी। कभी कभी उसकी छतके ऊपर ही सभा होती थी। हरि- मोहिनी अपनी स्वाभाविक सरलताके साथ उन स्त्रियोंका आदर करती थीं, किन्तु वे जो उसका अनादर करती थीं, यह उससे छिपा न रहा । वरदा- सुन्दरी हिन्दुओंके सामाजिक प्राचार-व्यवहार पर उसके सामने ही कड़ी समालोचना करती थी; और अनेक स्त्रिया हरिमोहिनीके प्रति विशेष लक्ष्य कर समालोचनामें साथ देती थी। मुचरिता अपनी मौसीके पास रहकर ये सब बातें चुपचाप सह लेती थी। केवल वह अपने मनका भाव किसी तरह प्रकट कर देती थी कि मैं भी अपनी मौसीके साथ हूँ ! जिस दिन भोजनका कुछ विशेष आयोजन होता उस दिन वरदासुन्दरी जब सुचरिताको खाने के लिए बुलाती थी, तब वह कहती थी-मैं न खाऊँगी! "यह क्या ! मालूम होता है, इन लोगोंके साथ बैठकर तुम न खामोगी ?" सुचरिता-~-नहीं। वरदासुन्दरी कहती थी--अाजकल नुचरिता बड़ी हिन्दू हो गई है यह तुम लोग नहीं जानतीं । अब यह हम लोगोंका छुपा नहीं स्वाती । हरिमोहिनी किसी-दिन व्यस्त होकर ऋह उठती थी--बेटी राधा रानी जानो, तुम खाने को जाना। सुचरिता अपने समाजमें हरिमोहिनी के कारण इस तरह फटकारी जा रही थी, यह उसके लिए बड़ा ही ऋष्टकर हुअा। किन्तु सुचरिता इस काट को कुछ जी में न लाती थी । एक दिन कोई ब्राह्म स्त्री जूता पहिने २८२