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(१८) परेश बाबूने वरदासुन्दरीके न रहने पर हरिमोहनीको अपने यहाँ टिका लिया और छत के ऊपरवाली कोठरीमें उसे जगह देकर ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि जिसमें उसके पूजापाठ में कोई विन्न वाधा न हो। वरदासुरदरी जब लौट आई तब वह अपने घरमें एक वैष्णवीको टिकी देख जल उठी। उसने परेश वाबूसे कहा-अापने यह क्या किया है ? मैं एक परदेशी स्त्री को अपने यहाँ रहने देना पसन्द नहीं करती। परेश बाबूने कहा-हम लोगोका रहना तुम पसन्द करती हो और एक अनाथ विधवाका रहना पसन्द नहीं करती ? मुचरिता प्रायः उम्रमें मनोरमाके वरावर की थी। हरिमोहिनी तुच- रिताको मनोरमाकी ही माँति देखने लगी और उसके साथ हरिमोहनीका स्वभाव मिल गया था। सुचरिता बड़ी शान्त प्रकृतिकी थी। किसी-किसी समय हरिमोहनी उसे पीछेसे आते देख चौंक उठती थी। उसे जान पड़ता था कि मनोरमा ही मेरे पास आ रही है देखो, हँसती हुई चली आ रही है। "श्रानो वेटी, प्रायो! तुम्हीं मेरी वेटी हो। नन्हीं मेरे हृदय की मणि हो,” यह कहकर सुचरिताके मुंह पर बड़े प्यारमे हाथ फेरकर और उसके मुंह को चूमकर आँसू बहाने लगती थी । सुचरिताकी आँखा भी आँसू उमड़ पाते थे । वह उसके गलेसे लिपट कर कहती थी मौसी, मैं भी तो माताका सुख बहुत दिन नहीं नोग सकी ! अाज वही खोई हुई माँ मुझे मिल गई है । मैं सननती हूँ वहीं मुझे देखने को आई है। दो ही दिन में सुचरिता के साथ उसकी मौसी का ऐसा गहरा सम्बन्ध हो गया कि सभी लोग दङ्ग हो रहें । वरदामुन्दरी को यह देख कर भी क्रोध हो पाया। देखो तो, लड़की दो ही दिन में उसके साथ ऐसे हिल मिल गई है, मानो हम लोगों से उसका २७८