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गोरा

नोरा [२७५ अनन्तर मेरी धन सम्पति सब उन्हीं की होगी, तो नी उतने दिन तक वैर्य धारण करना उनके लिए कठिन हो गया । मैं इसमें किसको दोष दूँ ? सब दोष मेरे कंटे कपालका ही था। मेरे सदृश अभागिन का जीता रहना ही मेरा एक भारी अपराध था। संसार में जोलोग अनेक प्रकार के स्वाथों से सम्बन्ध रखते हैं वे मेरे सदृश अनावश्यक प्रागीका जीना क्यों पसन्द कर सकेंगे। जब तक मनोरमा जोती रही तब तक मैं देवरों के मुलावे की वातों में न आई । वे लोग मेरो सम्पत्ति हथियाने के लिए माँति- भाँति की चेष्टा करने लगे । परन्तु मैं उन लोगोंके प्रपंच में न फंसकर अपनी सम्पत्तिकी-जो मर अधिकार में थी-बराबर रक्षा करती रही। मैंने यहां अपने मन में निश्चय किया था कि जब तक जीती हूँ, क्यों अपना घर बरवाद । खर्च करके जो बचेगा वह मनोरनाको दे बाऊँगो । मैं अपनी कन्याके लिए रुपया जमा कर रही हूँ। यह सुनकर मेरे देवरों का जी जल उठा 1 वे लोग समझते थे मानों में उन्हींका धन चुराकर वेटाके लिए जमा कर रही हूँ। मेरे त्वामीका नीलकान्त नामक एक पुराना विश्वासी कर्मचारी था, वही नेरा सच्चा सहायक था जब मैं अपने धनका कुछ अंश उन्हें देकर आपस में मेल कराना चाहती थी तब वह मुझे रोकता था। और इनमें अपनी सलाह देनेको कमी राजो न होता था ! वह कहता था, देखेंगे कि हमारे अंशका एक पैसा भी कोई ले सकता है ! आस्विर मेरा हक हड़पने के लिए देवरानी और ते झगड़ा होने लगा। उसी समय मेरी लड़कीका देहान्त हो गया। उसके दूसरेही दिन मेरे मंझले देवर ने आकर मुझे वैराग्य लेने का उपदेश दिया । कहा-भामी ! ईश्वरने तुम्हें जिस दशा में पहुँचा दिया है, उससे तुम्हें अब घर रहना उचित नहीं । अव तुम किसी तीर्थ में जाकर अपने जीवन का शेष समय बितायो । धर्म कर्ममें मन लगायो। हम लोग तुम्हारे खाने- पहिरनेका प्रबन्ध कर देंगे। फा० नं० १५