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गोरा

२४८] गोरा ही जाती है, परन्तु कलङ्क सहसा नहीं मिटता,इसलिए जो बात हो जाती है उसकी आलोचना करना भी जरूरी है। यदि आपसे ललिता इस प्रकार बराबर सहारा न पाती तो उसने जो काम आज किया है, वैसा वह कभी न कर सकती । आपहीने उसे इतना उद्दण्ड बना डाला है। परेश वाबूने पीछेकी ओर ललिताको खड़ो देख उसका हाथ पकड़ सामने खींचकर हारान बाबूसे जरा हँसकर कहा-हारान बाबू जब समय आवेगा तब आप जान सकेंगे कि सन्तानको सुशिक्षित करने के लिए स्नेहकी भी आवश्यकता होती है। ललिता झुककर पिता के कानके पास मुंह ले जाकर कहा-बाबूजी आपका पानी ठंडा हुअा जा रहा है । आप नहाने जायं । परेश वाबूने हारान बाबूकी ओर देखकर कोमल स्वरमें कहा-हो जाता हूँ अभी उतनी देर नहीं हुई है। ललिताने लेह भरे स्वरमें कहा-नहीं आप स्नान कर पायें, तक हम लोग हारान बाबूके पास बैठती हैं । परेश बाबू जब चले गये तव ललिता एक कुरसी पर जमकर बैठी और हारान बाबूके मुहकी ओर देखकर बोली-आप समझते ही हैं सभी को अपनी बातें कहने का अधिकार है। ललिताको सुचरिता जानती थी। और दिन ललिताकी ऐसी मूर्ति देखने पर वह मन ही मन उद्विग्न हो उठती; किन्तु अाज वह खिड़कीके पास कुरसी पर बैठकर, एक किताब हाथमें ले सिर मुकाये चुपचाप उसके पन्ने उलटने लगी। अपनेको रोक रखना सुचरिता जानती थीं। वह स्वभावकी बड़ी गम्भीर थी । ललिता जव हारान बाबू के आगे अपना विचार प्रकट करने बैठी तब सुचरिताने अपने हृदय के रुके हुए वेगको मुक्त कर देने का अवसर पाया। ललिताने कहा-हमारे लिए पिताजीको क्या करना उचित है यह आपकी समझमें पिताजी की प्रापेक्षा आप ही अच्छा जानते हैं। ऐसा श्रापको समझना चाहिए, क्योंकि आप समस्त ब्रह्मसमाजके प्राचार्य हैं न । तब ।