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२३२ ]
गोरा

२३२ ] गोरा प्रांत-भागके तारागण जैसे विनयकी निद्राको घेरे हुए हैं । एक अनिर्वचनीय माँभीर्य और माधुर्यसे उसका सारा हृदय एक दम लबालब भर गया । देखते-ही-देखते ललिताके दोनों नेत्रोंमें जल भर आया, यह वह खुद ही नहीं समझ सकी ? अपने पितासे उसने जिस देवताकी उपासना सीखा है, उसी देवताने जैसे उसे दाहिने हाथसे आज स्पर्श किया है। इस नदीके' ऊपर, इस तर पल्लव निविड़ निद्रित नदी तटमें रात्रिके अन्धकारके साथ नवीन प्रकाशका जिस समय निगूढ, सम्मिलन हो रहा था, उसी पवित्र सन्धि क्षणमें परिपूर्ण नक्षत्र सभाके बीच कोई एक दिब्य संगीत अनाहत महायीणामें दुस्सह आनन्द वेदनाकी तरह वज उठा। इसा समय नींदके झोंकमें विनयने जरा हाथ हिलाया ललिता चटपट केबिनका दरवाजा वन्द करके बिछौने पर लेट रही उसके हाथ पैरके तलवे टरडे पड़ गये। बहुत देर तक छातीकी धड़कनको वह बन्द न कर सकी। अन्धकार दूर हो गया, लीमर चलने लगा। ललिता मुँह हाथ धोंकर प्रस्तुत होकर बाहर आई, और रेलिङ्ग पकड़ कर खड़ी हुई। विनय पहले ही जहाबके भोपूकी आवाजमे जाग कर तैयार हो प्रभातका प्रथम अभ्युदय देखनेके लिए अपेक्षा कर रहा था । ललिता के बाहर निकलते ही वह संकुचित होकर चले जानेका उपक्रम करने लगा । ललिताने पुकारा--विनय वाबू! विनयके पास आते ही ललिताने कहा--जान पड़ता है, रातको श्राप अच्छी तरह नहीं सो सके ? विनयने कहा-सोया तो स्तूव । इसके बाद दोनोंमें फिर कोई बात नहीं हुई। शिशिर सिक्ताकाश वन के दूसरे छोर पर उन्मुख सूर्योदयकी नुनहली अामा उज्ज्वल हो उठी। इन दोनो जनोंने जीवन में ऐसा प्रभात और किसी दिन नहीं देखा था। प्रकाशने उन्हें कभी इस तरह स्पर्श नहीं किया। यह बात उन्होंने यहीं पहले पहल जानी कि आकाश बिलकुल शून्य नहीं है, वह पिल्लव नीरव. आनन्दसे सूष्टिकी और एक टक निहार रहा है। इन दोनों जनोंके .