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गोरा

गोरा. मयीके और एक बार मोराके मुखकी ओर दृष्टि डाली। किन्तु वैले ही. मनसे सब तरह के संदेहात्मक तर्कके उपक्रम को ठेल कर बाहर कर दिया । गोरा ने कहा-माँ तुम्हारी युक्ति अच्छी तरह मेरी समझमें नहीं आई । जो लोग याचार मानते हैं, जातिका विचार रखते हैं, शास्त्रको मानकर चलते हैं, उनके घर में भी तो लड़के जीते जागते रहते हैं, फिर तुम्हें यह बुद्धि किसने दी कि ईश्वर तुम्हारे ही सम्बन्ध में इस विशेष नियम से काम लेंगे?--- प्रानन्दनयी--जिन्होंने मुझको तुझे दिया है, उन्होंने ही यह बुद्धि भी दी है। उसके लिए मैं क्या करूँ, तू ही बता इसमें मेरा कोई बश नहीं है। किन्तु अरे 'पागल, मैं सोचकर भी नहीं टीक कर पाती कि तेरा भागलपन देख कर मैं हँन या रोऊँ। खैर, इन बातों को छोड़-तो फिर विनय मेरे यहाँ नहीं बायगा ? गोरा-वह तो नौका पाये तो अभी दौड़ा जाय, खाने का लोभ तो उसके मन में सोलहो आने है। किन्तु माँ, मैं उसे नहीं जाने दूंगा। दो मिटाई देकर उसे यह भुलाने से काम नहीं चलेगा कि वह ब्राह्मण का बालक है ! उमे बहुत कुछ त्याग करना होगा, प्रवृत्तिको संभालना पड़ेगा, तभी बह अपने ब्राह्मण जन्म के गौरव की रक्षा कर सकेगा लेकिन अम्माँ तुम कुछ बुरा न मानना, मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ। आनन्दमयी--मैं भला तेरी यातका बुरा मानूंगी ! तू कहता क्या है । नगर यह मैं नुझने कहे देती हूँ नू यह जो कुछ कर रहा है, उसके बारेमें तुम ज्ञान नहीं है । मुझे यह वात अवश्य कष्ट पहुंचाती है कि मैंने तुझे पाल पोस कर इतना बड़ा किया सही, लेकिन-खैर वह चाहे जो हो, जिसे धर्म कहता फिरता है, उसे मान कर मुझसे नहीं चला जा सकता। तू मेरे चौक में मेरे हाथ की बनी रसोई न खावगा, न सही, तुझे मैं अपनी आँखोंके आगे तो रख सकेगी---यही मेरे लिए बहुत है। बेटा विनय, तुम उदास ।न होओ। तुम्हारा मन नरम है, तुम समझते हो-गोरा की बातो से मुझे दुःख हुआ। लेकिन ।