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गोरा

रोग [ २१ गाही, घोडागाड़ी, बालकी, उँट बढरह पर चढ़ कर जाना पड़ता था, और ऐसे अवसरे पर अक्सर दो दो दिन मैंने भूखे प्यासे ही विता दिये हैं । तुम्हारे पिता क्या सहजमें मेरे प्राचार विचार को छुड़ा सके थे ? उसके लिए उन्होंने बहुन दिनों तक चेष्टा की थी। वह स्त्री को साथ लेकर सर्वत्र जाते थे, इसीलिये साहब लोग उनकी तारीफ करते थे। उनकी तनखाह भी बढ़ गई । अब तो बुढ़ापे में नौकरी छोड़कर खूब रुपये जमा करके, वह खुद एकाएक कार सदाचारी हिन्दू बन गये हैं । लेकिन मुझसे अब फिर यह नहीं हो सकता ! मेरे सात पीढ़ियोंके संस्कार एक एक करके जइसे उखाड़ वाले गये हैं अब वे फिर से नहीं जा सकते। गोरा-~-अच्छा तुम अपने पूर्व पुत्रोंको बात जाने दो। वे तो अब कोई आपत्ति करने नहीं आते। किन्तु हम लोगों की खातिर से तो तुमको कुछ बातें मानकर चलना ही पड़ेगा। न हो शास्त्रका मान न रक्खो, स्नेह का मान तो रसम्बोगी: आनन्दमय--अरे इस तरह इतना क्या मुझे समझाता है ? मेरे मन की क्या दशा है; सं. मैं ही जानती हूँ ? मेरे स्वामी, मेरे लड़के, अगर मेरे कारण, मरे अादरण से, पग पग पर केवल बाधा ही पाते हैं, तो फिर मुझे मुख हेका ? किन्तु तू यह नहीं जानता कि तुझे गोद में. लेनेके दिनसे ही मैंने नव आचार विचार छोड़ दिया है। छोटे लड़केको गोदमें ऊज लेने से ही समनमें आता है कि पृथ्वी पर कोई मनुष्य जाति लेकर नहीं पैदा होता। जातिकी कल्पना केवल कल्पना मात्र है। यह बात जिस दिन मैं समझी उसी दिनसे मुझे निश्चय हो गया है कि मैं अगर क्रिस्तान समझकर, नीच जाति समझकर, किसी से तो ईश्वर तुझे भी मेरी गोदते अन लेंगे। तू मेरी गोदको, मेरे घरको, मुशोमित किये रह, मैं वा भरको सभी जातियोंके हाथका पानी पिउँगी। घृणा करूँगी अाज अानन्दनीकी बातें सुनकर विनयके मनमें एकाएक किसी एक अस्पष्ट संशयका आभास दिखाई दिया। उसने एक बार आनन्द-