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गोरा

1 १७० ] गोरा कल रात को ललिताको कड़ी बातोंसे चोट खाकर विनय अब भी उसकीने दनाको भूल न सका था। विनयके साथ प्रायः किसीका विरोध नहीं होता । इसलिए वह किसीसे इस प्रकारका तीब्र आघात पानेकी आशंका भी नहीं रखता। इसके पहले वह ललिता को सुचरिता को अनुवर्तिनी समझता था । किन्तु अङ्कुश खाया हुश्रा हाथी जैसे अपने महावत को नहीं भूलता, कुछ दिनसे वैसे ही दशा ललिताकी के सम्बन्ध में विनयकी भी थी। किस तरह मैं .ललिताको कुछ प्रसन्न करू और शान्ति पाऊँ, यही चिन्ता विनयके मनमें प्रधान हो उठी। सांझको परेश बाबू के घरसे लौटकर आने के बाद सोते समय, ललिताकी कुटिल हास्य- भरी जली कटी बातें एक एक कर उसके मबमें उठती और उसकी नींद को तोड़ डालती थीं।" मैं छाया की माँति गोराके पीछे लगा फिरता हूँ, मैं गोराका आज्ञाकारी हूँ, मैं उसकी अनुमित के विना स्वयं कुछ कर नहीं सकता"- '--यह कहकर ललिता मेरा अपमान करती है, परन्तु उसकी एक भी बात सच नहीं । विनय इसके विरुद्ध अनेक प्रकारकी युक्तियाँ मनमें एकत्र कर रखता था। किन्तु वे सब युक्तियाँ उसके किसी काम न आती थीं। क्योकि ललिता तो स्पष्ट रुपसे यह अभियोग उसके विरुद्ध लगाती न थी 1 इस बातके विषय में तर्क करने का अवकाश उसे न देती थी । मतलब यह कि विनयके पास जवाब देने को बहुत बातें रहने पर भी वह समय पर उनका ब्यवहार न कर सकता था, जिससे उसके मनमें क्षोभ और भी बढ़ जाता था । कलकी रात जब उसने हार मानकर भी ललिताके मुंह पर प्रसन्नता न देखी तब वह घर आकर बहुत घबरा गया और सोचने लगा कि क्या सचमुच ही मैं इतनी बड़ी अवज्ञा का पात्र हूँ? इसीसे विनयने जब सतीशने सुना कि ललिता ही ने सतीशके हाथ उसके लिए गुलाब के फूल मेज दिये हैं तब वह मारे खुशीके उछल पड़ा । उसने सोचा, अभिनय में सम्मिलित होने को राजी हो जानेसे सन्धि के चिन्ह-स्वरूप गुलाब के फूल ललिताने प्रसन्न होकर दिये हैं ।