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[ २२1 गुलाबके फूलोंका एक उपाख्यान है। कल रातको गोरा तो परेश बाबूके घरसे चला आया किन्तु मैजिस्ट्रेट के यहाँ उस अमिनयमें बोग देने का प्रस्ताव लेकर विनय बड़ी विपत्ति में पड़ा। इस अभिनयमें ललिताका वैसा कुछ उत्साह नहीं था बल्कि इन बातों को वह पसन्द ही न करती थी। किन्तु किसी तरह विनयको इस अनि- नय में शामिल करने के लिये उसके मनमें मानों एक प्रकार की जिद हो गई थी। जो काम गोराके मत के खिलाफ थे, उन कामों को विनय के द्वारा पूरा कराना ही उसका अभीष्ट था, मानों वह अपने क्रोधको इसीके द्वारा चरितार्थ करना चाहती थी। विनय गोराका अनुवर्ती है, यह बात ललिता को असह्य थी पर इसका कारण खुद भी नहीं जानती थी। जो हो वह यही चाहती थी कि विनयको किसी तरह गोराके हाथसे छुड़ा कर स्वतन्त्र कर दूं। ललिता ने अपनी चोटी हिलाकर विनय से पूछा- क्यों साहव अभि- नय करने में दोष ही क्या है ? विनय--अभिनय करनेमें दोष न हो, किन्तु मैजिस्ट्रेट के घर पर जाकर अभिनय करना मुझे अच्छा नहीं मालूम होता । ललिता-ग्राप अपने मन की बात कहते हैं वा और किसीके मनकी ? विनय-दूसरेके मनकी बात कहने का जिम्मा मैं नहीं लेता-~-दूसरे के मनकी बात कोई भी तो नहीं कह सकता । आप शायद विश्वास न करेंगी, परन्तु मैं अपने मनकी ही बातें कहा करता हूँ---कभी अपने मुँहसे और कभी औरके मुँह से।