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गोरा [ १५१ - 2 सुचरिताने उसके मुँह की ओर न देखकर कहा-अन ठहरिए चाब्रूजी को पाने दीजिए तब सुन लँगी । विनय ने खड़े होकर कहा-अच्छा तो हम जाते हैं । सुचरिता झट बोल उठी-नहीं विनय बाबू आप अमी न जाएँ। बाबूजीने आप लोगोंसे ठहरने को कहा है । वे अब आते ही होंगे। "तो मैं अब पल भर भी ठहर नहीं सकता," यह कहकर हारान बाबू वहाँ से चले गये। उस समय वे क्रोधमें श्राकर वहाँसे निकल तो पड़े, किन्तु बाहर आकर जब उनके होश ठिकाने आगे तब उन्हें पश्चात्ताप होने लगा, परन्तु उस समय लौटने का कोई बहाना उन्हें खोजने पर भी न मिला । हारानवाबू के चले जाने पर सुचरिता एक अपूर्व लज्जा से सिकुड़कर, सिर झुकाकर, बैठी रही। क्या करूँ, क्या बोल, यह मन ही मन सोच रही थी, पर कुछ निश्चय न कर सकती थी। तब तक गोरा ने उसके मुँह की ओर अच्छी तरह देखने का अवकाश पा लिया । गोरा ने शिक्षित स्त्रियों में जिस उद्धत स्वभाव और निर्लज्जता की कल्पना कर रक्ली थी, उसका आभास तक सुचरिता की मुख-शोभा में न या। बुद्धि की उज्ज्वलता से उसका चेहरा अवश्य प्रकाश पा रहा था किन्तु लज्जा और नम्रता से आज वह क्या ही सुन्दर और कोमल मालूम हो रहा था ! उसके मुख पर क्या ही लावण्य और कोमलता छाई है ! धनुष सी टेढ़ी भौहों पर अायत ललाटकी कैसी अपूर्व शोभा है। नवीन रमणीके वेत्र-चिन्यास और उसके भूषण-वसन की ओर गोराने इसके पूर्व कभी अच्छी तरह से नहीं देखा था, और न देखने का उसे एक रोग सा था । स्वभावतः उसे उस पर घृणा थी ! आज सुचरिता के शरीर परं नये ढङ्ग की साड़ी पहिरने का चमत्कृत माव देखने में उसको बड़ा अच्छा लगा । सुचरिता का एक हाथ टेबल पर था। गोरा की दृष्टि उस पर भी जा पड़ी । वह भी उसे एक अपूर्व रूप में दिखाई दिया । बाब उसकी दृष्टि में कुछ विक्षेषता है । वहाँ पर वह जो कुछ देखता है अपूर्व