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[१८] विनय आनन्दमयीकी ऊपर लिखी बातों को सोचता हुआ घरको गया । अानन्दमयीकी कही एक बात की भी उपेक्षा आज तक कमी विनय ने नहीं की। उस रातको उसके हृदय पर जैसे एक बोझ रक्खा रहा । दूसरे दिन सवेरे उठने पर विनयको अपनी तबियत हलकी सी जान पड़ी-उसे जान पड़ा, जैसे वह किसी भारी बोझके दवावसे छुटकारा पा गया है। बिनयको समझ पड़ा, उसने जैसे गोरा की मित्रताको बहुत बड़ी कीमत देकर चुका दिया है। एक तरफ शशिमुखीसे ब्याह करने के लिये राजी होकर उससे जीवन भरके लिये जो एक बन्धन स्वीकार किया है,उसके बदलेमें दूसरी तरफ उसे गोराकी मित्रता का बन्धन अलग कर देने का अधिकार हो गया है। गोराने विनयके ऊपर यह जो सन्देह किया है कि वह अपनी समाजको छोड़कर ब्राह्म परिवारमै व्याह करने को ललचा उठा है, सो इस मिथ्या सन्देहके पास शशिमुखीके विवाह को सदाके लिये जमा- नतके रूपमें जमा करके उसने अपने को छुड़ा लिया। इसके बाद विनय बिना किसी संकोचके परेश बाबूके घर अधिकताके साथ जाने आने लगा। जिनको विनय पसन्द करे उनके निकट घरका-सा अपना सा आदमी बन जाना विनयके लिये कुछ भी कठिन नहीं । उसने जैसे ही गोरा की तरफका संकोच अपने हृदयसे दूर कर दिया वैसे ही, देखते ही देखते कुछ ही दिनोंके भीतर, वह परेश बाबू के घरके सभी आदमियों की दृष्टि में जैसे बहुत दिनोंकी जान पहिचानवाले आत्मीयके समान हो उठा ! उसकी प्रकृति और व्यवहार ही ऐसा था। केवल ललिताके मनमें जिन कई दिनों तक यह सन्देह रहा कि शायद तुचरिताका मन विनयकी ओर कुछ खिंच गया है, उन्हीं कई दिनों तक उसका मनअवश्य बिनयके विरुद्ध जैसे खङ्ग-हस्त हो उठा था। किन्तु जब उसने स्पष्ट ही समझ लिया कि उसकी धारणा भ्रम मात्र थी, सुचरिताको १२७