७२ [ गोरख-बानी गोरख कहै हमारा परतर पंथ । जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध । लोग जुगति मैं रहै समाय । ता जोगी कू काल न षाय ॥२२०॥ वरष एक देखिलै हो। पंडिता तत एक चीन्हिवा सबर्दै सुरति समाई। गोरखनाथ बोलै भ्रम न भूलिवा रे भाई ॥ २२१॥ अबूझि बूझिलै हो पंडिता अकथ कथिलै कहाणी । सीस नवांवत सतगुर मिलीया जागत रैण बिहाणी ॥ २२२ ॥ विद्या पढ़ि र३ कहावै ग्यांनी । विनां अविद्या कहै अग्यांनी । परम तत का होय न मरमी । गोरष कहै ते४ महा अधरमी ॥ २२३ ॥ पंथ चले चलि पवनां तूटै५ तन छीजै तत जाई । काया कछु अगम बतावै ताकी मूडू माई ।। २२४ ॥ केवल (ख) में अधिक सवदियाँ महमंद महमंद न करि काजी महमंद का बौहोत विचार। महमंद साथि पैकंवर सीधा ये लप अजी हजारं ॥ २२५ ॥ परतर, अति प्रखर, अति, तीक्ष्ण, अति कठिन ॥ २२० । वरप (विरख), वृक्ष, ब्रह्म के ऊपर अधिष्ठित जगत् ॥ २२१ ॥ हे पंटित न जानने योग्य को जानो। जो नहीं कहा जा सकता उसकी झ्या कहो । सिर नवाते हो (हृदय में वास्तविक श्रद्धा और जगन उत्पन्न होते हो, सीस नवाना जिस बाहरी लक्षण है ) सद्गुरु से साक्षात् हो जाता है और परिणाम में जागते-जागते (ज्ञानावस्था में) इस ( अज्ञानमय जीवन रूप ) रात्रि का प्रमात हो जाता है ॥ २२२ ।। काया से अगम्य तस्य भी नहीं है। क्योंकि ब्रह्मा का निवास भी हमारे शरीर में ही है । मिलाइए पोछे के सं० १ और १० से ।। २१४ ॥ सीधा, साधना के लिए यत्न किये, पचमरे । ये 'हजारं हजारों-लाखों अथवा एक तास अस्सी हजार । निरंजन पुराण में भी एक लाख अस्सी हजार पोर पैगम्परों का उल्लेख हुधा १. (ग) है। २. (५) बूझिवा । ३. (ग) कर । ४. (ग) तैं। ५. (ग) न्टे । ६. (ग) ते । ७. (ग) मुडी। ८. (ख) वीचारं ।
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