१२ गोरख-बानी] सूरां' का पंथ हास्यां का विसराम सुरता लेहु विचारी। भपरचै पिंड भिष्या षात है अंति कालि होयगी भारी ॥२१६॥ उलटी सति चदै ब्रह्मड नप सप५ पवनां षेलै सरबंग। उलटि चन्द्र राह कू ग्रहै । सिध सङ्केत जती गोरष कहै ॥२१॥ धरे अधर बिचारीया धरी याही मैं सोय । धरे अधर परचा हूवा तब दुतीया नाहीं कोय ॥२१॥ जिभ्या इन्द्री एक नाल । जो राषै सो बचै काल । पंडित ग्यांनी न करसि गरव । जिभ्या जीती जिन जीत्या सरब ॥२१॥ शूर (साधक) को तो सदा मार्ग पर ही चलना है। विनाम उसी के लिए है जो हारकर अपने आपको काल के हाथ कर चुका है। हे श्रोताओ इस बात को विचार लो, जिसको इसी शरीर में ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो गया (अपरिचय ) है और फिर भी जो भिक्षान्न खाता है, उसको अंतकाल में कठिनाई हो जायगी ॥ २१६ ॥ कुंडलिनी शक्ति जब उलट कर ब्रह्मांड में पहुँच जाती है, और नख से शिख तक सर्वाङ्ग में वायु व्याप्त हो जाती है (नाथ-शब्दावली में, वायु-भक्षण होने लगता है ) तब ( उलटा सहस्रारस्थित अमृत-प्रस्तावक ) चंद्रमा ही राहु (अर्थात् प्राधार पद्मस्थित प्रसने वाले सूर्य) को प्रस लेता है (जिससे अमृत का पान संभव होता है।) यही गोरख ऐसा सिद्ध सङ्केत कहता है ॥२३॥ धरा (पांच-मौतिक शरीर ) ही जय पंच भूतों से परे रहने वाले परब्रह्म (अधर ) का विचार किया तो उसे इसी पांचभौतिक शरीर में पाया । इस प्रकार जय धरा ही में अधर (ब्रह्म तत्व ) का परिचय ( साक्षात्कार ) हो जाता है तब श्रद्वरत की सिद्धि हो जाती है ॥२१८॥ एकै एक परमझ के साथ, भगवत्स्मरण के द्वारा । बचै काल, काल को धोखा देता है ॥२१६॥ १. (ग) सुराहारया । २. (ग) प्यंड । ३. (ग) अंतकाल होइगी । ४. (घ) सुरति । ५. (ग) नष चष । ६. (ग) रीह कुगहै। ७. (ग) श्री गोरप- नाय ८. (ग) धरै। ९. (ग) सोइ “नहीं कोइ । १०. (ग) (१)1११. (ग) तिन । १२. (घ) अब। नाल,
पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/९८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।