[गोरख-बानी . १० ६२ हंड ब्रह्मण्ड चहोड़ीया मानूं वेस्या अंन । कोई कोई कोरड़ रह गया यू भाषे नाथ रतन' ॥२१॥ (ख) और (घ) में के अधिक सबदियां निंद्रा सुपनै •२ विंद कू हरै। पंथ चलंतां आतमा मरै बैठां षटपट ऊभा उपाधि । गोरख कहै पूता सहज समाधि ॥२१२॥ सूकै कंठ श्ररु भूष संतापै । देह बिसर अर निंद्रा ब्यापै। बुधि बिन वकै विकल होय जाय । तातै गोरष भांगि न षाय ॥२१३॥ रूसता रूठा गोला-रोगी । भोला भलिक भूषा भोगी। गोरष कहै सरवटा जोगी। यतनां मैं नहीं निपजै जोगी ॥२१४॥ (ग) और (घ) में के अधिक सबदियां अवधू अहार कूतोडिबा पवन कू मोडिबा ज्यं कबहु न होयबा रोगी छठे छमासि१३ काया पलटंत नाग बंग बनासपती जोगी ॥२१॥ तो ये क्रमशः वैद्य, रसायनी और जोगी श्रादि नहीं हैं ॥२१०॥ रतननाथ कहता है कि मैं मानता हूँ कि समस्त ब्रह्मांड वेश्या ( माया) के अन्न पर पलता है इस लिए उसके शासन में ( चहोडिया ) है । कोई पिरला ही उसके प्रभाव से कोरा है। चहोड़ना, चिच पट श्रगल घगल चारों तरफ से पीटना (गढ़वाली बोली में ) ॥ २११ ॥ नींद स्वप्न में शुक्र का नाश करती है। मार्ग चलने से के आत्मा को श्रवसाद होता है। (चेशम) बैठे रहने से खटपट सूमती है। खदे होने से उत्पात होता है (इसलिए हे पुत्र ! गोरप का कथन है कि सहज समाधि में सर्वदा लीन रहना चाहिए ॥ २१२ ॥ विसर, विस्मरण, यहाँ पर चेतनाहीन अर्थात् जर (हो जाती है) ॥२१३॥ गोना रोगी, वायु गोला का रोगी। भालिक, बहुत खाने वाला। सरवटा, जिसके याल बटे हों ॥ २१४ ॥ १. यह साखी भी स्पष्ट ही रतननाय की है । २. (ख) न्यंद्रा सुपनै । ३. (ब) व्यंददु । ४. (ख) चनता श्रातम ! ५. (ख) घट पट । ६. (ख) ऊपाधि । ७. (स) नाय । ८. (ख) सदनि । ६. (ग) श्राहार कु । १०. (ग) कुं पन्नटिया । ११. (ग) ज्यो। १२. (ग) कबहु न होइगा । १५. (ग) छमामा । थकान कारण
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