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६४ [गोरख-बानी ग्यांन सरीषा गुरू न मिलिया चित्त सरीषा चेला । मन सरीषा मेलू न मिलिया तीथें गोरष फिरै अकेला ॥१८॥ (ख), (ग) और (घ) में अधिक सबदियां- सांग' का पूरा ग्यान का ऊरा । पेट का तूटा डिंभ का सूरा। वदंत गोरखनाथ न पाया जोग । करि पाषंड रिझाया लोग ॥१६॥ अगनि ही जोग अगनिहीं भोग । अगनि ही हरै चौंसठि रोग। जो इहि अगनि का जाण भव । सो आप ही करता आप ही देव १६१ जीवता जोगी अमीरस पीवता अहनिस' अषंडित धार दिष्टि२ १२ मधे अदिष्टि१२ बिचारिबा ऐसा अगम अपार ॥१६२॥ ९ ११ १३ ज्ञान के सदृश दूसरा (पूर्ण) गुरु नहीं मिला, चित्त के सदश चेला नहीं मिला और मन के सदृश मेल-मिलाप वाला नहीं मिला इसलिए गोरख (गुरु, चेला अथवा साथी के फेर में न पद कर अपने ज्ञान, चित्त और मन ही से क्रमशः गुरु, चेला और साथी का काम लेते हुए) अकेला फिरता है॥ १८६॥ जो केवल स्वाँग करने में पूरा है और ज्ञान का अधूरा है, जिसका पेट खाली है अर्थात् बड़ा पेट है (बहुत जिसमें समाता है ) और जो दम्भ करने में शूर है, उसे योग नहीं प्राप्त होता। वह केवल पाखण्ड कर लोगों को प्रसन्न करना जानता है ॥ ११०॥ अगनि, योगाग्नि । भेव, भेद, गूढ़ रहस्य ॥ १६ ॥ जीवान्मुक्त जोगी रात दिन अमृत की अजस्त्र धारा का पान करता रहता है। दृष्ट पदार्थों में अदृष्ट परमात्मा के दर्शन करने चाहिए। ऐसे (इस प्रकार) अगम और अपार ( परमात्मा अथवा योग की प्राप्ति होती है) ॥ १६२ ॥ १. (ख) साग; (ग) स्वांग । २. (ख), (ग) उरा । ३. टुटा; (ग) टूटता । ४. ड्रांभ(?); (ख) डयम्भ ! ५. (ग) योग । ६. (ख), (ग) अगनि ही ७. (ख) चोसटि । ८. (ख) कोई जाणे। ९. (ग) आपहि; (ख) प्रापै । १०. (ख) अहिनिसि; (ग) अहनिसि । ११. (ख) पंडै धार; (ग) अपंडित धारा । १२. (ग) दृष्टि दृष्टि; (ख) में यह चरण यों है-अदिसटि मध्यं दिसटि रोपिवा । १३. (ख) अगह अपार; (ग) अगहे अपार ।