गोरख-बानी] ६३ छत्र पवन निरंतर रहै छीजै काया पंजरा रहै। मन पवन' चंचल निजि गहिया बोले नाथ निरंतरि रहिया ॥१८६॥ इकटी बिकुटी त्रिकुटी संधि पछिम द्वारे पवनां बंधि । पूटै तेल न बूम दीया बोलै नाथ निरन्तरि हूवा ॥१८७।। न्यूज्यू भुयंगम आवै जाइ सुरही घरि नहीं गरड़ रहाइ, तब लग सिध दुलभ जोग तोयं अहार बिन व्यापै रोग ॥१८॥ छत्र-पवन जब भेद रहित निरन्तर अवस्था को प्राप्त हो जाता है तब काया क्षीण होती जाती है, खदखद उठरी मात्र रह जाती है तथा मन पवन (स्थूल) और चंचल इन्द्रियाँ अपने हाथ में आ जाती हैं। नाथ का कथन है कि इस प्रकार निरन्तर रहनी सिद्ध होती है। योग शास्त्र के अनुसार वायु के दस भेद होते हैं जो शरीर में अलग-अलग व्यापारों की सिद्धि करते हैं। वायु के इन भेदों में सार स्वरूप जो मूल चायु (सूक्ष्म सिद्धान्त स्वरूप वायु है) है वही को यहाँ पर इत्र वायु कही गई है ॥ १८६ ॥ एकटी ( पहली, इडा) और विकटी ( दूसरी, पिंगला) का जब त्रिकटी (तीसरी, सुषुम्ना) में मेल होता है और सुषुम्ना मार्ग में जब पवन का निरोध हो जाता है तब साधक अमर हो जाता है, उसका आयु रूप तेब समाप्त नहीं होता और जीवन रूपी शिखा वुमतो नहीं है। इस प्रकार नाथ कहते है कि साधक निरन्तर अर्थात् नित्य स्वरूप हो जाता है। एक पर स्वार्थे टा (+ स्त्री० ई) उपसर्ग के लगने से एकटी शब्द सिद्ध हुआ है । इसके अनुकरण पर द्वि से विकुटी और त्रि से त्रिकुटी शब्द बने हैं। त्रिकुटी भी अभिप्रेत है ।। १७ ॥ ज्यों ज्यों (जब तक ) श्वासा (सर्प) आती जाती है, और उसके लिए सुषुम्ना मार्ग (सुरही घरि, गाय के घर ) में गरुड़ का निवास नहीं होता अर्थात् जब तक श्वास का निरोध नहीं होता, तब तक सिद्ध-योग दुर्लम है। (क्योंकि) बल (वीर्य) का आहार किये बिना शरीर में रोग व्यापता है और ( साधक जल का आहार कर सकता है, अवं रेता हो सकता है) प्राणायाम की चरम सिद्धि (कुम्मक) ही से ॥ १८८ ॥ १. (ख) पवनां । २. (क) टूटे । ३. (ख) रहिया ।
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