गोरख-बानी] १० १२ 13 १४ १९ २० दावि ने मारिवा पाली न राषिवा जांनिबा अगनि का भेवं । बूढी ही थे गुरबानी होइगी सति सति भाषेत श्री गोरप देव॥१७३॥ बाहरि न भीतरि नेड़ा न दुर । पोजत रहे ब्रह्मा अरु सूर" । सेत फटक मनि होर बीधा। इहि परमारथ श्री गोरष सीधा॥१७४।। श्रावति१६ पंच तत१७ कूमो है जाती छैल जगावै। गोरष पूछे बाबा मछिंद्र या न्यद्रा कहां थें आवै ॥ १७५ ॥ मन को कुचल कर (दमाकर ) नहीं मारना चाहिए, उसे खाली भी नहीं रखना चाहिए । अग्नि (ब्रह्माग्नि अथवा योगाग्नि) का भेद (रहस्य) जानना चाहिये। (ऐसा करने से) बूढ़ी ( माया, आद्या जो आदि से चली श्रा रही है, पुराण की संगिनी) (जो सामान्यतया बंधन में डालने वाली होती है ) वही (मुक्त करने वाली ) गुरुनानी हो जायगी। यह गोरखदेव का सत्य वचन है । माया का द्वैध स्वरूप है, अविधा रूप में वह जीव को वश में कर बंधन में डालती है और विया रूप में वही मोक्षदायिनी The परब्रह्म श्रारम तरव न बाहर है न भीतर, न निकट है न दूर । ब्रह्मा और सूर्य उसे खोजवे ही रह गये, ( उसका रहस्य न पा सके) । श्वेत स्फटिक मणि को हीरे ने वेध लिया, (धात्मा ने रहस्य का भेदन कर ब्रह्म साक्षात्कार कर लिया।) इसी परमार्थ के लिए गोरखनाथ ने साधना सिद्ध की ॥ १७ ॥ गोरखनाथ मत्स्येन्द्रनाथ से पूछते हैं कि हे बाबा जो आती हुई पाँचों १. (ग), (घ) दावे । २. (ग), (घ) ब्रह्म अगनि । ३. (ग), (घ) बूढ़ा। ४. (ग) थ; (घ) है । ५. (ग) गुर वाणि; (घ) गुरू बाणी। ६. (ग) होइगा; (घ) होयगी । ७. (क) बाहरे "भीतरे; (ख) बाहिरा "भीतरा; (घ) में 'भीतरि'; उसके पहले 'न नहीं । ८. (ख) दुरी, (ग), (घ) दूरि । ९. (ग), (घ) गया । १०. (ख), (घ) फटकि । ११. (ख), (ग), (घ) मणि । १२. (ख) बध्या; (ग) होरे बीध्यां; (घ) हीरा बोध्या। १३. (ख) तहा (? तिही), (ग), (घ) तिस । १४. (ग) प्रमारथ, (ख) प्रमारथि । १५. (ख), (ग) श्री गौरषनाथ, (घ) जती गोरषनाथ । १६. (क), (घ) आवत । १७. (ग) पंचतत्व, (घ) पांच तत्व, (ख) पांच तत । १८. (ग), (घ) कहे हो । १९. (ख) में नहीं,(ग) यो । २०. (ख) चद्रा (न्यद्रा), (ग), (घ), निंद्रा।
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