प्रकाशक का वक्तव्य कतर लाक्षणिक अर्थ ही लगाया है, और स्पष्ट शब्दों में कह दिया है केवल वाझ थातों में न पड़ कर हमें प्रारमचिंतन की ओर ही विशेष ध्यान देना चाहिये । इसके सिवाय उन्हें वाह्य विडंबनाओं के प्रति बदी घृणा है, और वे कल्पित देवी देवताओं की भाराधना के प्रति अभद्धा तथा वर्ण-विभेद व सांप्रदायिक संकीर्णता के प्रति घोर विरोध प्रदर्शित करते हुए और ब्रह्मचर्य, आत्मसंयम व युक्ताहार विहारादि में भटूट विश्वास रखते हुए दीख पड़ते हैं। 'गोरख-बानी' में, इसी प्रकार, नाय-पंथ की गुरु-परंपरा, मछींद्र नाथ के कामरूप-निवासी एवं मयनामती रानी की तथा प्रादि कई बातों के भी उल्लेख अनेक बार भाए हैं। गोरखबानी' में संगृहीत सभी रचनाएँ , संभवतः गुरु गोरखनाथ की कृति नहीं हैं। इनमें से कुछ एक में दूसरों के नाम स्पष्ट रूप में पाए हैं और कई- एक की, बहुत सी अन्य बातों के कारण भी सहसा उनकी रचना नाम लेना उचित नहीं जान पाता । फिर भी इतना निश्चित है कि ऐसी रचनाएं उनके अनुयायियों की ही हो सकती हैं। विद्वान संपादक ने इन रचनाओं को, कम से कम आधे दर्जन से अधिक प्रतियों का मिलान कर, अनेक पाठभेदों के साथ प्रकाशित कराया है और उनका अनुवाद करते अथवा उन पर यथास्थल टिप्पणी आदि देते समय किन्हीं संस्कृत वा प्राचीन हिंदो टीकाओं से भी योड़ी-बहुत सहायता ली है संग्रह में पदों व सदियों के अतिरिक्त लगभग एक दर्जन छोटे-छोटे फुटकर ग्रंप भी आ गए हैं, जिनमें से दो को रचना गप में हुई है। 'गोरख-बानी' विषय, शैली आदि अनेक रष्टियों से अध्ययन के उपयुक्त एक महत्वपूर्ण संग्रह है जिसका हिंदी साहित्य के प्रेमियों द्वारा समुचित स्वागत होना चाहिए। इलाहाबाद रामचंद्र टंडन अक्टूबर १६४२ साहित्य मंत्री भापा,
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