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१० ११ १२ 13 १४ १५ [गोरख-बानी ५६ जोगी' होइ२ पर निंद्या : झष । मद मांस अरु भांगि जो भषै इकोतरसै पुरिषा नरकहि जाई । सति सति भाषत श्रीगोरष राई१६४ अवधू मांस भपंत दयाधरम का नास । मद पीवत तहां प्रांण निरास भांगि भर्फत ग्यांन ध्यान पोवंत । जम दरबारी ते प्राणी रोवंत ॥१६५ चालिबा पंथा कै सीबा कंथा । धरिबांध्यांनं कै कथिबा ग्यांनं । एकाएकी सिध कै संग । बदंत गोरषनाथ पूता न होयसिमन भंग ॥१६६ (सब में व्यतिक्रम हो जाता है ।) सब तीर्थ (जिनकी संख्या ६८ मानी गई है) तो शरीर के भीतर ही हैं । हे भाई वाहर कहाँ भ्रमण करते भटकते हो ? ॥१६॥ जोगी होकर जो पराई निन्दा करता है, मद्य, मांस और भाँग खाता है, उसके इकहत्तर सौ पुरुषा नरक चले जाते हैं, गोरखनाथ यह सस्य सस्य बोलते हैं ॥ १६४॥ हे अवधूतो ! मांस खाने से क्या-धर्म का नाश होता है, मदिरा पीने से प्राण में नैराश्य छाता है, भाँग का प्रयोग करने से ज्ञान-ध्यान खो जाता है और ऐसे प्राणी यम के दरबार में रोते हैं ॥ १६॥ या तो मार्ग में चलते रहना चाहिये, या कंथा सीते रहना चाहिये, या ध्यान धरे रहना चाहिये, या ज्ञानोपदेश करते रहना चाहिये। (इस प्रकार ) १. (ख) अतीत । २. (ख), (घ) होय । ३. (क) प्रन्यंदा; (ग) निंदा। ४. (ग) में भांगि' के आगे 'न' भी है जो प्रसंग से गलत जान पड़ता है । ५. (घ) यकोतर सै पुरीया (१षा); (ख) मनसा बाचा । ६ (ग) नरको; (घ) नरक मैं। ७. (घ) जायराय । ८. (क) सत्य सत्य । ९. (ग) भपंते; (घ) भपंतां; (ख) षाया ते; चरण के प्रारम्भ में 'अवधू' नहीं । १०. (ग) पीवंता तहां; (घ) पीवंता; (ख) पीवै ते । ११. (ख), (ग), (घ) भषंत ते । १२. (घ) में 'रोवंत' के पहले 'ऊभा' और (ख) में गढ़ा ('ठ' राज स्थानी लिपिकार इस ढङ्ग से लिखते हैं कि 'ठा' गलती से 'ग' पढ़ा जा सकता है ) अाया है, (ग) में इस चरण का यह पाठ है-ते प्राणी जम द्वारे रोवत । (ख) में इस चरण के प्रारम्भ में 'बदंत गोरषनाथ' है और 'ते के स्थान पर 'वै' हैं । १३. (ग), (घ) कै चालिबा । १४. (ग) सीईबा; (घ) सीयबा । १५. (ग) कै घरिवा । १६. (क) में अंतिम दो चरण नहीं हैं।