५४ - [गोरख-बानी स्वामी काची बाई काचा जिंद । काची काया काचा बिंद । क्यूंकरि पाकै क्यूंकरि सीझै । काची अगनी नीर न पीजै॥१५६॥ तो" देवी पाकी बाई पाका जिंदर । पाकी काया पाका बिंद। ब्रह्म अगनि अपंडित वलै । पाका अगनी नीर परजलै ॥१७॥ सोवत प्राडां ऊभा ठाढां अगनी व्यंद न बाई । निश्चल १ आसन २ पवनां ध्यानं अगनी ब्यंदा न जाई ॥१५८॥ उगवंत' सूर पत्र पूर'४ काल-कंटक जाई१५ दूर। नाथ का भंडार भरपूर रिजक रोजी सदा हजूर' ॥१६॥ हे स्वामी वायु कच्चा है, जीवन कच्चा है, शरीर कच्चा है, और बिंदु (शुक्र) भी कच्चा है। ये किस प्रकार पक्के हो सकते हैं, किस प्रकार सिद्ध हो सकते हैं। (योगाग्नि के सिद्ध हुए बिना) कच्ची अग्नि से नीर एक नहीं सकता ॥ १५ ॥ हे देवी वायु, जीवन, शरीर और बिन्दु तव पके होते हैं जब ब्रह्माग्नि असंडित रूप से जलने लगती है। इस प्रकार ब्रह्माग्नि या योगाग्नि के सिद्ध होने से जलमयी प्रकृति जल उठतो है ॥ १७ ॥ तिरछे सोते, सीधे खड़े रहते (अर्थात् सामान्य अवस्थामों में) अग्नि, बिंदु और यायु की रक्षा नहीं की जा सकती, किन्तु जब श्रासन, पवन और ध्यान ये तीन चीजें निश्चल हो जाती है तव अग्नि और बिन्दु नष्ट नहीं होते ॥ १५८ ॥ सूर्य के उदय ( ब्रह्म साक्षात्कार ) होने पर काल रूपी कंटक दूर हो जाता है। (साधक को अपने सम्पन्ध में चिन्तित रहने की आवश्यकता नहीं रहती ) नाय का भंडार भरापुरा रहता है। वह सब के लिए प्रतिदिन का भोजन प्रस्तुत कर देता है ॥ १५ ॥ १. (ग), (घ) स्वामी जी । २. (ग) व्यंद" व्यंद । ३. (क) किस विधि । ४. (ग), (घ) नहिं । ५. (ग), (घ) में तो नहीं। ६. (ग) अपंडत । ७. (क) नीरा जले। ८. (ग) बैठां; (घ) बैठा । ९. (ख), (ग), (घ) अगनि । १०. (4) विंद । ११. (ब), (घ) निहचल । १२. (ख), (घ) श्रासण; (ग)ग्रासनि । १३. (ग), (4) ऊगत । १४. (ग) पूरि: "भूरि । १५. (घ) जायगा । १६. (, मर मर । १७. अन्तिम चरण के स्थान पर (ग), (घ) में यह है- "पापा को प्रोग्रे, और नी चंता श्री गोरखनाय करे ।' जो दो चरण के पर बान परता है।
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