गोरख-बानी] ९ अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा।बांध्या मेल्हा तौ जगत्र चेला। बदंत गोरष सति सरूप । तत बिचारे ते रेष न रूप ॥१५३॥ सीषि साषि बिसाह्या बुरा । सुपिर्ने मैं धन पाया पड़ा। परषि परपि ले आगै धरा! नाथ कहै पूता पोटा न परा ॥१५४॥ आओ'• देवी बैसो। द्वादिस१ अंगुल १२ पैसो। पैसत पैसत होई१३ सुष। तव जनम मरन१४ का जाइ१५ दुष १५५॥ हे अवधूत, अगर मन चंगा (शुद्ध) है तो कठौती में ही गंगा है अर्थात् जहाँ चाहो वहाँ गंगा विद्यमान है। क्योंकि गंगा-सेवन से जो फल बताये गये हैं वे मन की शुद्धता से स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। यदि माया के बंधन में पड़े हुए मन को (अथवा जीव को) मुक्त कर दिया तो सारा जगत चेला हो जायगा। गोरख सत्य स्वरूप का वर्णन करता है जो उस तत्व का विचार करेंगे, (वे स्वयं ) रूप और रेखा से रहित हो जायेंगे ॥ १५३ ॥ (खाली पढ़ने-सीखने से कुछ नहीं होता । ) सीख साख कर बुराई पाकर स्वम देखने वाले ने परख-परख कर अपने पास बटोर लिया, परन्तु नाथ कहते हैं कि हे पूत ! वस्तुतः वह धन न खोटा है, न खरा । (क्योंकि असल में तो वह धन ही नहीं है)॥१५४ ॥ है देवी (कुंडलिनी शक्ति !) आओ बैठो, द्वादशांगुल प्राणवायु अर्थात् उसको बहन करनेवाली प्रमुख सुषुम्ना में प्रविष्ट होनो । प्रविष्ट होते होते सुख प्राप्त होगा और जन्म-मरण का भय भाग जायगा|| १५५ ।। . १. (ख) में 'अवधू' नहीं। २. (ख), (ग), (घ) में 'ही' नहीं। ३. (ख) बाध्या; (ग) व्यंध्या। ४. (क) पेल्हा; (ख), (घ) पेला । ५. (ख) सब जगत्र । ६. (ख) में अंतिम दो चरणों के स्थान पर ये हैं-राष्या रहै गमाया नाय । सति सति भाषंत श्री गोरष राय । ७. (ग) विचारिबा लै; (घ) विचारै लै । ८. (क), (ग), (घ) वरा। ६. यह सवदी (ख), (ग), (घ) में कुछ पाठ मेद से इस प्रकार है-सीषी साषी बिसाया बुरा । नाय कहै रे पूता षोटा न परा। सीषिवा सबद बिसायवा बरा । डारिबा पोटा लेवा परा। १०. (ग) अवो (१ श्रावो) ११. (ग), (घ) द्वादस । १२. (घ) अांगुल । १३. (ग), (घ) होयगा । १४. (ग) जनम जनम । १५. (ग) जाइगा; (घ) जायगा । १० "
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