[गोरख-बानी १ १ २ . 3 ७ । अवधू बूझना ते भूलना नहीं अनबूझ मग हारै। संने जंगल भटकत फिरहीं, मारि लिहीं बटमारै ॥१५०॥ गुरु की वाचा पोजें नाहीं, अहंकारी अहंकार करै । पोजी जीवे पोजि गुरू कौं, अहंकारी का प्यंड परै ॥१५१॥ यंद्री का लड़बड़ा जिभ्या का फूहड़ा । गोरष कहै ते पर्तषि चूहड़ा । काछ का नती मुष का सती । सो सत पुरुष उतमो कथी ॥१५२॥ उतरता है, किन्तु इस सत्य शब्द का उपदेश उन्हीं को होता है जिन्होंने योग्य योगी को गुरु धारण किया है। गुरुहीनों को तो चालबाजी ही मिलती है, (क्योंकि उसे पिना गुरु के कुछ भा तो सकता नहीं है। इसलिए वह धोखा देकर अपने को सिद्ध प्रसिद्ध करना चाहता है ) जिसे गुरु ने मड कर चेला बनाया है वह गुण ग्रहण करता है । जिसने गुरु की शरण नहीं ली वह भ्रम में पट जाता है और अवगुण धारया कर लेता है ॥ १४ ॥ हे श्रवधूत ! जिसने समझ लिया वह भूलता नहीं है। किन्तु जो समझते नहीं हैं, वे मार्ग भूल जाते हैं और सुने जंगल में भटकते फिरते हैं जहाँ उन्हें 'ग मार डालते हैं ॥१०॥ अहंकारी अहंकार से भरा हुआ गुरु मंत्र लेने की इच्छा से गुरु की खोज नहीं करता । गुरु को खोज करने वाला गुरु को खोज कर जीवन प्राप्त करता है, अमर हो जाता है और अहंकारी का शरीरपात हो जाता है ॥१५॥ जो जननेंद्रिय के सम्बन्ध में असंयत ढोले-ढाले हैं, जिहा से फूहद पाते फरते हैं, गोरखनाय कहते हैं कि वे प्रत्यक्ष भंगी हैं । लंगोट का पक्का (संयम रखने याला ) ख का सच्चा अर्थात् मुस्न से सत्य वचन कहने वाला सरपुरुप ही टप्सम कहा जाता है॥१२॥ १. (घ) पूझयां "भूलग्णां । २. अंतिम तीन चरगा (ख), (ग), (घ) में यो पाठ मेद में इस प्रकार है-न खोजे ते अग्यांनी सही, पोजी जीव, वादी मर गघि का पिंड पई। ३. (प) इन्द्री; (ख) चंद्ररा; (क) में प्रारंभ में "पांन क छोटा काच क लोहड़ा" इतना पीर है; (4) में इसके स्थान पर "दाप का जती मुप का मती" है। ४. (ग) लटपटा; (घ) लटपट्टा; (ख) सगावगा। ५, (ग), (घ) मुष । ६. (ख) नाय । ७. (ग) यांधू प्रनिकि, (क), (9) 15. (क), (ब) में अंतिम दो चरा नही है । -
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