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गोरख-बानी] । ११ ११ १५ षां मी मरिये अणषांये भी मरिये । गोरष कहै पूता संजमि ही तरिये मधि निरंतर कीजै बास । निहचल मनुवा थिर होइ सास ॥१४॥ पवन ही जोग पवन ही भोग । पवन ही हरै छतीसौं रोग। या पवन कोई जाणे भेव । सो श्रापैं करता था देव ॥१४॥ व्यद ही जोग व्यंद ही भोग। व्यंद ही हरै चौसठ रोग। या बिंद का कोई जाणे भेव । सो आय करता आ देव ॥१४॥ साच का सबद सोना का रेख निगुरां कौं चाणक सगुरा कौं उपदेश गुर का मुंड्या गुंण मैं रहै। निगुरा भ्रमै औगुण गहै ॥ १४ ॥ अघाकर खाना भी मौत है, बिल्कुल न खाना भी मौत है। गोरख कहते हैं कि हे पुत्र ! ( इन दोनों में संयम करने से ही मुक्ति हो सकती है, इसलिए मध्यम रहनी ही से रहना चाहिए जिससे मन निश्चल हो और श्वास स्थिर ॥ १४६ ॥ पवन ही योग है, पवन हो भोग है, पवन हो छत्तीसों ( सभी) रोगों का हरण करता है। इस पवन का भेद विरले ही जानते हैं। जो पिरला जानता है ) वह श्राप ही ब्रह्मा है, आप ही ब्रह्म ॥ १७ ॥ बिंदु ही योग है, बिंदु ही भोग है, घिदु ही चौंसठों रोगों का हरण भरता । इस विंदु का भेद कोई विरला ही जानता है। (जो जानता है) वह भाप ही ब्रह्मा है, श्राप ही ब्रह्म || १५८ ॥ सत्य का शब्द सोने की रेखा के समान है, जो सब कसौटियों पर सच्चा १.(ख) में भी मरिये नहीं है। (ग), (घ) में 'भी' के स्थान पर 'ही' है; (ख) में भी दूसरे 'भी' के स्थान पर 'हो' है; (क) में दूसरे 'मरिये' के स्थान पर 'मरिय है। २. (ग), (घ) बिण पाये । ३. (ख) सुणौ रे पूता; (ग) (घ) रे पूता । ४. (ख), (घ) संजम । ५. (घ) तिरीए । ६. (ख), (ग), (घ) में अंतिम दो चरण नहीं हैं; देखो पिछले पृष्ठ की टिप्पणी १०.१ ७. (ख), (ग), (घ) चौंसठि। ८. (ग), (घ) में कोई नहीं है । ९. (ख) जागै; (ग), (घ) जावै । १०. (ख) प्रापै (ग), (घ) आप ही । ११. (घ) विंद । १२ (ग) जानें १३. (ग) भैव; (ख) भेष । १४. (ग), (घ) सति, (ख) में यह सवदी नहीं है। १५. (क) सोनें। १६. (ग), (घ) क । १७. (ग) चोणिक; (घ) चाणिक । १८. (ग) सुगरा; (घ) सुगरा । १६ अंतिम दो चरण (ग), (घ) में नहीं हैं। n n