४९ . गोरख-धानी] अवधू पारै पिरै पाट मरै मीठ उपजै२ रोग५। 3no गोरष कहै सुणौ रे अवधू अं. पाणी जोग५ ॥१४॥ बजरी करता अमरी राषै अमरि करतां बाई। भोग करता जे व्यंद' राषै ते गोरष का गुरभाई ॥१४१॥ भग मुषि व्यंद अगनि मुषिपारा । जो राषै सो गुरू हमारा ॥१४२॥ जिभ्या स्वाद तत तन पोजै हेला करै गुरू११ बाचा। अगनि बिहूँणां बंध न लागै१२ ढलकि जाइ१३ रस काचा ॥१४३॥ नमकीन से शुक्र नष्ट होता है, खट्टे से मरता है । मीठे से रोग पैदा होता है। इसलिये गोरख कहते हैं कि हे श्रवधूत ! सुनो, योग केवल अञ्च-पानी ही के व्यवहार से सिन्न होता है । (खट्टे मीठे श्रादि स्वादों के पीछे योगी को महीं जाना चाहिए। )॥ १४० ॥ वज्रोली करते हुए जो अमरोली की रक्षा करे, अमरोली फरते हुए वायु को रक्षा करे, और भोग करते हुए विंदु ( रेतस्) की रक्षा करे, वह गोरख को भाई, अर्थात् गोरख के समकक्ष सिद्धिवाला है ॥ १४१ ॥ बज्रोली विधि के लिए देखिए-गोरक्ष पद्धति पृ० ४८-४६ । अमरोली के लिए--गोरक्ष पद्धति पृ० ५१ । योनि मुख में जो विंदु को रक्षा रे तथा अग्नि के ऊपर पारे की रक्षा -रे वह हमारा गुरु है । (जिस प्रकार अग्नि के ताप में पारद को रक्षा करना ठिन है, उसी प्रकार योनि-मुख में शुक्र की भी। ) योगी की यह कठिन रक्षा है ।। १४२॥ जो शरीर में जिह्वा स्वाद के रूप में तत्त्व को खोज करता है और इस १. (ग), (घ) में 'अवधू' नहीं है । २. (क) पिरंतझरंत'उपजंत । ३. ) सुनो; (ग) सुणो ४. (ग), (घ) में यह चरण इस प्रकार है-अनपाणी नाधा (धौ) जोग । (ख) में अनर पानी सीझै जोग । ५. (ख), (ग), (घ) -जोग । ६. (ख) करता । ७. (ख) जो । ८. (घ) बिंद । ६. (क) जिहा, 3 (ग) जिभ्या स्वादी । १०. 'तन षोजै' के स्थान पर (ग) में 'नहीं दरसै; में 'न दरसै' । ११. (ग), (घ) गुर । १२. (ग) जागै-। १३. (घ) जाय; नाई।
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