४८ [गोरख-बानी ४ घट ही रहिवा मन न जाई दूर । अह निस पीवै जोगी बारुणी सूर । स्वाद विस्वाद बाई काल छीन । तब जांनिबा जोगी घट का लछीन १३७ परचय जोगी उनमन षेला । अहनिसि इछया करै देवता स्यू मेला । पिन पिन जोगी नांनां रूप। तब जांनिबा जोगी परचय सरूप ॥१३८॥ निसपती जोगी जांनिवा११ कैसा। अगनी पाणी लोहा मा १२ जैसा। राजा परजामि करि देष । तब जांनिबा जोगी निसपतिका भेष ॥१६॥ १ है (जब योगी ) अपने ही शरीर में रहता हो, मन दूर न जाता हो, तर वह शूर (योगी) रात दिन (अमर) वारुणी का पान करता है; सुख (स्वाद), दुःख (विस्वाद) तथा झाल, (केवल कुम्भक के सिद्ध होने से) वायु के द्वारा क्षीण हो गये हों, तम जानना चाहिए कि जोगी में 'घट' दशा के लक्षण श्रा गये हैं ॥ ३७॥ परिचय-जोगी वह है जो उन्मन समाधि में क्रीया करता है, लीन रहता । रात दिन इच्छानुसार देवता ( परब्रह्म ) का समागम करता रहता है और क्षण क्षण में (अणिमादि सिद्धियों के द्वारा इच्छानुसार ) नानारूप धारण कर सकता है, तय जानना चाहिए कि योगी को स्वरूप का परिचय हो गया है ॥ १३८॥ निष्पत्ति-प्राप्त योगी की क्या पहचान है ? अग्नि और पानी में जैसे लोहा शुद्ध होता है उसी प्रकार जय नाना कठोर साधनाओं के द्वारा योगी दो साय, (लोहा शुद्ध करने के लिए कई बार बाग में गरम करके ठंडे पानी में तुझाया जाता है) तगा राजा प्रजा में जय योगी की समदृष्टि हो जाय, तय समझना चाहिए कि उसे निप्पति का वेश प्राप्त हुया है ॥ १३ ॥ १. (घ) जायया । २. (घ) वारणी । ३. (घ) वाय । ४. (घ) लपिण; (ग) में पिछली सयदो का अंतिम एक और इस सवदी के प्रथम तीन चरय नहीं हैं। ५. (ग), (घ) परच ! ६. (ग), (घ) कला । ७. (घ) पद निस; (क) अहनिस । ८. (घ) पंछया। ९. (ग) त्यौ; (घ) सू। १०. (ग), (घ) पिय पिण। ११. (ग), (घ) जांगिया । १२. (ग), (घ) न मान।
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