गोरख-बानी] ४७ । 3 पंडित ग्यांन मरौ क्या झूमि । और लेहु परमपद बूझि । पासण पवन उपद्रह करें। निसिदिन प्रारम्भ पचि-पचि मरें ॥१३४॥ उनमन जोगी" दसवै द्वार । नाद व्यंद ले धूधू कार । दसवें द्वारे देइ कपाट । गोरख षोजी और बाट ॥१३५।। आरम्भ जोगी कथीला एकसार। पिण षिण जोगी करै सरीर विचार तलबल व्यंद धरिबा एक तोला तब जांरिणबा जोगीआरंभकाबोल१३६ ११ १२ हे खंरित ज्ञानियो! तुम बाहरी बातों से युद्ध करते हुए क्यों पच भरते हो। (इन से तब तक कुछ लाभ नहीं होगा जब तक तुम वास्तविक आभ्यन्तर ज्ञान अर्थात् परमपद की अोर न जानोगे) वह परमपद इन से भिन्न है, (इस सूक्ष्म ज्ञान के विना ) श्रासन और प्राणायाम (पवन का साधन) उपद्रव किया करते हैं। रात दिन पच मरने पर भी इनके द्वारा प्रारम्भ अवस्था से आगे बढ़ा नहीं जा सकता ॥ १३४॥ योगी दशमद्वार ( ब्रह्मरंध्र ) में समाधिस्थ होता है और नाद तथा बिंदु के मेल से धूधूकार अर्थात् महाशब्द अनाहतनाद को सुनता है किन्तु गोरखनाथ ने दशमद्वार को भी बन्द कर और ही घाट से परब्रह्म की खोज की है। (केवल बास बातों में न पद सूचम विचार की-चिंतन की आवश्यकता की ओर संकेत किया है)॥ ३५ ॥ भारम्भ योगी वह कहलाता है, जो एकसार अर्थात् निश्चन एक रस रहे और क्षण क्षण शरीर पर विचार करता रहे और शरीर में पुरे (सिरे तक) भरे हुए शुक्र की समत्व (एक तोल ) रूप से रक्षा करे । तब समझना चाहिए कि योगी पर घट अवस्था के लिए कहे गये वचन अर्थात् बक्षण घट जाते हैं ॥३६॥ १. (ग), (घ) अजहूँ। २. (ग) लेहूँ; (घ) लेह । ३. (ग) आसन । ४. (ग) उपद्रहि । ५. (ग) उनमनि योगी। ६. (ग) द्वारि । ७. (घ) विन्द । ८. (क) दसें । ६. (ग) अरंभी; (घ) प्रारंभी । १०. (ग) कथिलौ । ११. (ग) बेकसार; (घ) यकसार । १२. (ग) षिणि षिण। १३. (ग), (घ) सरीर का। १४. (ग) तलतल । १५. (1) परिवाई । १६ (क) वोले वोले ।
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