४२ [गोरख-बानी कहणि' सुहेली रहरिण दुहेली कहणि रहणि विन थोथी' । पढ्या गुण्या सूवा विलाई५ पाया पंडित के हाथि रह गई पोथी॥११॥ कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन' षायां गुड़ मीठा । खाई१२ हींग१६ कपूर वषाणे गोरष १४ कहै सब१५ भूठा ॥१२०॥ और तावे से सब का काम चलता है किंतु सोना और चाँदी केवल अलंकार की वस्तुएँ हैं, नित्य के व्यवहार में उनकी आवश्यकता नहीं। वैसे ही मुहम्मद और तुडा अर्थात् ईश्वर और अवतार भी हैं। इन दोनों अर्थात् मुहम्मद और खुदा, ( ईश्वर और अवतार) के बीच दुनिया गोता खा रही है । किन्तु हम (जोगी) निराले या निराधार, बिना किसी का श्रासरा लिये हुए बैठे देखते रहते हैं। ऐसी एक उक्ति ( सनुन ) बाबा रतननाथ हाजी ने कही है ॥११८|| कहना आसान होता है किन्तु उस कहने के अनुसार रहना, कठिन, और विना रहनी के कहना किसी काम का नहीं, खोखला या छूछा है । तोता पद- गुन कर कुछ शब्दों को दुहराना भर सीख सकता है, उनके अनुसार काम नहीं कर सकता, उनका अर्थ नहीं समझता । ऐसे हो अनुभवहीन पढ़े गुने पंडित के हाथ में भी केवल पोथी रह जाती है, सार वस्तु उसके हाथ नहीं पाती और परिणामतः वह काल का प्रास हो जाता है, सुहेली, सुलभ, सुलह सुहेली । दुहेली, दुर्लभ, दुल्लह, दुहेली ||११६॥ फहना श्रासान है और रहना दुलम, बिना गुद खाये मुंह से 'मीठा' > वावा रतन हाजी ऐसी (सै ) कहै । हम तौ इ (य) न ते न्यारा रहै ॥ यह सबदी प्रायः सब प्रतियों में मिलती है परन्तु यह स्पष्ट ही बाबा रतननाय की हे गोरख की नहीं। १. (ग) कहिणि(घ) कहिण । २. (क) कहण; (ग) रहण । (घ) विण; (ख) वीणि ! ४. (ख), (ग), (घ) में 'गुण्यां' नहीं । ५. (ग) विरलाउ । ६. (ख) सुवेटा मीनी ले गई। ७. (क) योया रह गया पोथा । ८. (ख) कपणी करणी; (ग) कहिणी रहिणी । ९. (घ) दुहेला । १०. (ख), (ग) (प) पिण । ११ (क) पायें । १२. (ख) पावें । १३. (ख) में कपूर के पहले 'पर' है । १४. (ग), (घ) नाय । १५. (ख), (ग), (घ) ते ।
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