४० [गोरख-बानी चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा, पंच की मेटिबा आसा। बदंत गोरष सति ते सूरिवां उनमनि मन मैं बासा ॥११४॥ सिध क" संकेत बूझिलै सूरा, गगन अरथांनि बाइलै तूरा। मीम के मारग रोपील भांणं, उलट्या फूल कली मैं आणं ॥११५॥ (जैसे भू-पृष्ठ को तोड़ कर अंकुर बाहर निकलता है उसी प्रकार अहंकार को तोड़कर श्रात्मा प्रस्फुटित होती है।) जहाँ गंगा (ईड़ा )-जमुना (पिंगला) फा पानी सोख लिया गया (अर्थात् दोनों का प्रभाव मिटा कर सुषुम्ना में मिला लिया गया) तथा ( सहस्रारस्थ) चन्द्रमा और (मूलाधारस्थ) सूर्य दोनों का विरोधी स्वभाव मिटा कर सन्मुख कर दिया गया (जिससे अमृत का साव नष्ट नहीं होने पाया), हे अवधूत वहाँ की पहचान अथवा लक्षण बतायो । सहनांणी-संधान, खोज, पहचान ॥ ११३ ॥ हे चेतन (जीव) ! सचेत रहना चाहिए । श्रारमा को रेतना नहीं चाहिए दुःख नहीं देना चाहिए । पंचेंद्रियों से मिलने वाले मूठे सुख की आशा मिटा देनी चाहिए। गोरखनाथ कहते हैं कि वे ही सच्चे शूरवीर हैं, जो में लीन मन में निवास करते हैं ॥ ११ ॥ हे शूर (साधक) ! सिद्ध के संकेत (सांकेतिक उपदेश) को समझो । शून्य-स्थान में तुरी (अनाहत नाद) बजायो। चन्द्र के विरोधी भानु को मीन के मार्ग पर लगायो अर्थात् योग युक्ति से चन्द्रमा के सम्मुख करो जिससे अमृत का रसास्वादन हो सके। (मछली नदी की धारा के विरुद्ध चल लेती है, किन्तु मछली किस मार्ग से गयी है, पानी के नीचे इस बात का पता कोई नहीं लगा सकता । योग का मार्ग भी इसी प्रकार गुप्त रहता है । इसीलिये वह 'मीन का मार्ग' कहाता है।) इससे फूल उलट कर फिर कली में बदल जायगा, वृद्ध को याल स्वरूप प्राप्त हो जायगा ॥ ११५ ॥ १. (घ) चेति रे; (ख) चितरा; (ग) चंता रे । २. (ख), (ग), (घ) गोरपनाय । ३. (क) रिमां । ४. (क) उनमन। ५. (ख) सिधि, (ग) संघ (घ१)। ६. (ख) गगनि; (ग), (घ) गगन । ७. (क) अस्थाने ८. (ग) वजाइल । (घ) वजायले । ६. (क), (ग) मारग । १० (क) रोपीला । ११. (स) फवल। उन्मनावस्था
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