1 उन्हें अच्छा ३८ [गोरख-बानी बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट, नहीं रै पूता गुरू सौं भेट । षड़ षड़ काया निरमल नेत, भई५ रे पूता गुरू सौं भेट ॥ १०९ ।। निरति न सुरति जोगं न भोग, जुरा मरण नहीं तहाँ रोग। गोरष बोलें एकंकार, नहि तहँ बाचा ओअंकार ॥ ११० ॥ खाने के पाखंडों में से एक हो जाय । भिक्षा में जो कुछ प्राप्त होता है वह भी गुरु का है और उन्हीं के अर्पण होता है।) गुरु के प्रसाद स्वरूप मिक्षा- भोजन करने से अंतकाल में कर्मों का बोझ नहीं सतावेगा ॥ १०॥ जिनके बड़े बड़े कूल्हे और मोटी तोंद होती है ( उन्हें योग की युक्ति नहीं पाती। समझना चाहिए कि उन्हें ) गुरू से भेंट नहीं हुई है। (या तो योगी मिला ही नहीं है अथवा गुरु के शरीर के दर्शन होने पर भी उसकी वास्तविकता को उन्होंने नहीं पहचाना है, उनकी शिक्षा से लाम नहीं उठा सकता या उसके अधिकारी ही नहीं हुए हैं) (यदि साधक का ) शरीर खद खद ( चरवी के बोझ से मुक्त है और उसके नेत (नासा रंध्र ) निर्मल अथवा उसकी आँखें (नेत्र) निर्मल, कांतिमय हैं तो (समझना चाहिए कि उसकी ) गुरु से भेंट हो गयी है। नेत=(१) मंथन की डोरी । इसी से नेती क्रिया का नाम बना है। इस क्रिया में नासारंधों में डोरी (नेत) का उपयोग होता है, इस लिए साहचर्य से नासारंध्र अर्थ भी सिद्ध होता है। (२) नेत्र, आँख ॥ १०६ ॥ (परमानुभव पद में ) न निरति है, न सुरति है; न योग है, न भोग १. (ग) बड़े बड़े। २. (ख), (ग), (घ) कूला। यह सबदी; (ग), (घ) में कुछ अंतर के साथ है; (ग) में इस प्रकार है- बड़े बड़े कूला असथूल, नोग जुगति का न जाणे मूल । खाया भात फुल्या या पेट, नहीं रे पूता गुर स्यौं भेट । (घ) में यह भी है और इसके अतिक्ति-'पड़ षड़ काया' आदि दो चरण भी इसी सबदी के साथ दिये हैं जिससे उसके ६ चरण हो गये हैं । ३. (ख) स्यू: (ग) स्यौ; (घ) सूं । ४. (ख) नेत्र । ५. (ख) होइ रै; (घ) हुई रे। ६. (क) नृती न सुरती; (ख) वक्ता न सुरता निरति न सुरति; (घ) निरति सुरत्य । ७. (ग), (घ) जोग नहीं भोग...रोग । ८. (क), (ग), (घ) ऊंकार; (ख) नहीं तहां प्राचार विचार प्रोउंकार । ,
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