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. [गोरख-बानी संन्यासी सोईकरैसर्बनास, गगन मंडल महि५ मांडै आस । अनहद सूमन उनमन रहै, सो संन्यासी अगम की कहै ॥१०॥ लाल वोलंती अम्हे • पारि' उतरिया, मूंढ रहै१२ उर वारं । थिति बिहूणां झूठा जोगी१३ ना तस४ वार न३५ पारं ॥१०४॥ उलटिया पवन षट चक्र बेधिया, नातैलोहे सोषिया९पाणीं। चंद सुर दोऊ२ निज घरि राष्या२१, ऐसा अलष बिनांणीं ॥१०५॥ था तब वे अपने राज्य को छोटा समझते थे और बाहर के राज्यों को बड़ा । इसी से प्रत्येक देश में विदेशियों का बड़ा आदर होता था ॥१०२॥ सन्यासी वह है, जो अपने सर्वस्व का न्यास (त्याग ) कर देता है केवल शून्य मंडल में (मिलने वाली ब्रह्मानुभूति की) आशा लिये रहता है। अनाहत (को सुनकर ) मन को उन्मनावस्था में लीन किये रहता है। वह संन्यासी (स्वानुभव से ) अगम परब्रह्म का कथन करता ॥१०३॥ लाल ( संभवतः लालनाथ) कहते हैं कि ( हम भव सागर से) पार उतर गये । किंतु मूढ़ (संसारी) लोग (उसे पार नहीं कर सके, ) इसी किनारे रह गये । परन्तु जो स्थिति (स्थिरता) के दिना होने, (अभी चंचल) झूठा जोगी है (वह मझधार ही में डूब जाता है) उसे न वह किनारा मिलता है, न यह, न वह वार होता है न पार, उसका यह लोक भी नष्ट हो जाता है और उसे मोक्ष भी नहीं प्राप्त होता ॥१०॥ प्राण वायु को उबट कर छहों चक्रों को वेध लिया। उस से तय १. (ख) सो; (घ) सोई । २. (ग) (घ) में 'करै' नहीं है । ३. (क) श्रव; (ख) सरव का; (ग),(घ) सरव (क्रम-ग) करम का । ४. (ख) गीगनि; (घ) गिगनि । ५. (ख), (ग), (घ) मैं । ६. (ख) स्यु (ग) स्यौं, (घ) स्यू । ७. (ग), (घ) उनमनि । ८. (क) सोई; (ख) सो । ६. (क) सिन्यासी; (ख), (ग), (घ) सन्यासा । १०. (ख) वोलै,अमें, (ग), (घ) कहे हम । ११. (क), (ग) पार । १२. (क) (ग), (घ) रह्या । १३. (ग), (घ) झूठा जोगी तिथि विहूँणा । १४. (क) तिस । १५. (ग) ण । १६. (ख) उलटि, (ग), (घ) उलख्या । १७. (ग) (घ) बेघ्या। १८. (ख) ततै; (घ) तातें। १९. (ख) सोष्य (ग), (घ) सोध्या। २०. (ग) २१. (ग), (घ) दोऊ । २१. (क) राषौं । यह 'सवदी किसी लालनाय योगी की जान पड़ती है। के कारण 1