३४ [गोरख-बानी देवल जात्रा' सुनि जात्रा', तीरथ जात्रा' पाणीं । अतीत" जात्रा सुफल जात्रा बोलै अंमृत वाणीं ॥ ९७ ॥ अधरा धरे बिचारिया, धर या ही मैं सोई। धर अधर परचा हवा, तब उती नाहीं कोई ॥ ८ ॥ ऊभा मारू बैठा मारू', मारू जागत सूता । तीनि लोक भगजाल पसारथा' कहां जाइगो१° पूता ॥६॥ गंगानल लाने वाले ) और सन्यासियों को तीर्थो ने भ्रम में डाल रक्खा है इन में से किसी ने निर्वाण पद का भेद नहीं पाया ॥ १६ ॥ देवालय की यात्रा शून्य यात्रा है, उससे कोई फल नहीं मिलता । तीर्थ की यात्रा (:से तो फल हो क्या मिल सकता है, वह ) तो पानी को ही यात्रा ठहरी । सुफल यात्रा अतीत-यात्रा है, साधु-सन्तों के दर्शनों के लिए की जाने वाली यात्रा है, जो अमृतवाणी बोलते हैं । ( उनके सत्संग और उपदेश श्रवण से जो लाम होता है वह किसी यात्रा से संभव नहीं)॥७॥ अधर (शून्य ब्रह्मरंध्र ) में हमने ब्रह्मतत्व का विचार किया । ( अधर में तो वह है ही ); इस धरा में भी वही है। (मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक सर्वत्र उसकी स्थिति है। कहीं वह स्थूल रूप से है, कहीं सूचम रूप से ।) जब धर अधर का परिचय हो जाता है, जब मुजस्थ कुंडलिनी शक्ति का सहस्रारस्य शिव से परिचय हो जाता है तय साधक के लिए उधर अर्थात् अपने अनुभव शान से बाहर कुछ नहीं रह जाता ॥८॥ (काल की ललकार है कि मुझ से तुम बच नहीं सकते) । खड़े, बैठे, जागते, सोते चाहे जिस दशा में रहो उसी दशा में मैं तुम्हें मार सकता हूँ (उन्हें पकड़ने के लिए ) मैंने तीनों लोकों में योनि रूप जाल पसार रक्खा है। उससे बच कर तुम कहाँ जानोगे!॥ १६ ॥ 1 १. (क), (ग) यात्रा । २, (ग) सूनि; (ख) (घ) सुनि । ३. (ख) तीरयी। ४. (स) पांनि । ५. (ख) साधु । ६. (ख) अम्रत; (घ) यंम्रत । ७. (क) अरघ । ८. (ग), (घ) तीन । ९..(ग) पसार्यो । १०. (ख) जाहुगे; (ग) जायगो; (प) जायगा।
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